
अधर के तुम द्वार खोलो,
नयन-सम्मोहन लुटाने रा
त बाकी है अभी भी,
क्यों तान रक्खी है कमानों के सरीखी वक्र भृकुटी,
गालों पर खिले जो सुमन उनसे आंच को हर मंद कर दो।
तुम न जाने किस गगन की अप्सरा हो; कुछ कहो तो,
क्यों भला शृंगार शस्त्रों से सजी यूं दमकती हो,
नयन-द्वय क्यों छोड़ते हैं काम-सिंचित बाण तीखे,
और होंठों के किनारों पर कटीला स्मित खड़ा है।
नासिका में शोभती है लौंग हीरे की अनूठी,
और गालों पर लिखी है कुन्तलों ने बात मीठी।
किस कदर ये हठ भरा यौवन समेटे तुम चली हो,
तुम चितेरे की अनोखी तूलिका सी मनचली हो,
इन्द्रधनु का आठवां एक रंग जो सबसे निराला,
उस रंग में डूबी हुई; नवरंग रंगी एक कली हो।
पूर्णिमा से ज़रा पहले चांद की जो छवि खिले है,
उस छवि से प्रेरणा ले इस धरा से आ मिली हो।
मैं अकेला ही नही; लाखों यहां मधु के चहेते,
और तुम मधुकलश सी मद में खड़ी आकंठ डूबी,
जहां भी तुम पग धरो; एक नया महुआ वहांखिलता,
चाणक्य की तुम कल्पना हो; रूप-विषकन्या निराली।
आंचल तेरा है क्षीण कैसे वो इसे अब धर सकेगा,
आतुर बरसने को किसी आषाढ़ की संध्या सरीखी,
मत रोक ख़ुद को, मुक्त कर दे तू स्वयं को बन्धनों से।
और अपनी प्रणय-धारा से कोई विप्लव जगा दे,
सृष्टि को रसमय बना दे।
नाम: विवेक कवीश्वर
नयी दिल्ली
सम्मान:
प्रकाशन: 1 काव्य-संकलन
1 ग़ज़ल और नज़्म संकलन
1 दोहा और हाइकु संकलन
1 नाटक / फिल्म स्क्रिप्ट
8 काव्य के साझा संकलन