क्यूं ललचाती हो

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prabhat dube
रत्न विभूषित छम-छम करके,इतना क्यूं  ललचाती हो।
मेरे वश में नहीं हो फिर भी,मुझको क्यूं पास बुलाती हो॥
मैं गँवार जो गाँव का ठहरा,तेरी कीमत क्या जानूं।
जो कहते फिरते हैं सब वो,मैं तो बस उतना मानूं॥
मैं छल से तुझे नहीं चाहता,सच्चाई से आओगी।
पता नहीं आओगी या भी, या सपने खूब दिखाओगी॥
रत्न विभूषित छम-छम करके,इतना क्यूं ललचाती हो।
मेरे वश में नहीं हो फिर भी,मुझको क्यूं पास बुलाती हो॥
सुंदर इतनी लगती मुझको,तड़प-तड़प  रह जाता हूँ।
सोते-जागते खोजता फिरता,भागा-भागा जाता हूँ॥
पास खड़ा हूँ तुझे जानकर,प्यार मुझे कर पाओगी।
कर भी लो तुम दया जानकर,क्या साथ मेरा दे पाओगी॥
रत्न विभूषित छम-छम करके,इतना क्यूं ललचाती हो।
मेरे वश में नहीं हो फिर भी,मुझको क्यूं  पास बुलाती हो॥
गाँव छोड़कर शहर में भागा,तुझे पाने की थी आशा।
हुआ हकीकत से सामना, टूट चुकी मेरी अभिलाषा॥
तू तो बस किस्मत से मिलती,मुझ गरीब के खाते में।
या कोई बेफिक्र चल पड़ा,मिल जाती हो जाते-जाते में॥
रत्न विभूषित छम-छम करके,इतना क्यूं  ललचाती हो।
मेरे वश में नहीं हो फिर भी,मुझको क्यूं
पास बुलाती हो॥
इंसान तेरे वो रंग राज को,कभी समझ नहीं पाएगा।
अपना सब कुछ खोकर भी,मातंग जैसा भागेगा॥
समझ चुका तेरी माया को,माफ करो अब मुझे सुंदरी।
चाहे तुझे कोई कुछ भी समझे,मैं समझ चुका हूँ फिर भी पूरी॥
रत्न विभूषित छम-छम करके,इतना  क्यूं ललचाती हो।
मेरे वश में नही हो फिर भी,मुझको क्यूं
पास बुलाती हो।

                                                                 #प्रभात कुमार दुबे 

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