गरीब की आंखें पथराई-सी,
देख रही है झोपड़ी में
न खाने के लिए आटा,
न पहनने को कपड़ा
न मां की दवाई,
न बहन का रिश्ता
न भाई की पढ़ाई,
और फटी-सी साड़ी में
जीवनसंगिनीl
खिलौने न होने पर
बिलखते बच्चे,
इतना देखा ही था के
इन आंखों से बहने लगे
आँसू के झरने,
जीवनसमर की
कठिन परीक्षा में
तनिक निराशा में वो खोया हुआ
कुछ बड़बड़ाकर बोला
क्या है दोष मेरा ?
हे प्रभु तू बता,
क्यूं इस तरह मुझको
जीना पड़ रहा है,
तभी अचानक अन्तर्मन में
एक बिजली-सी कौंधी
और उसे मिलने लगा उत्तर,
जीवन समर है पग-पग पर
जीत-हार न सोच
कर्तव्य और विश्वास लेकर,
खुद को इसमें झोंक देl
दुख-सुख तो धूप-छांव-सा
पल में है,पल में नहीं।
आशाओं का सम्बल जगा
निराशा का त्याग कर,
जिजीविषा ज्वाला को
दीप्त कर,
मरना तो सबको है एक दिन
बस तू अपना किरदार
सच्चे मन से निभाता जा
इस तरह अपने अन्तर्मन की आवाज सुन वो
ईश्वर पर विश्वास रखकर
सुदृढ़ मनोबल से
अपने जीवन मंचन
को सफल बनाने के लिए
अपने किरदार का
निर्वहन करने लगाll
परिचय : संदीप शर्मा की शिक्षा-शास्त्री (बी.ए.),शिक्षा शास्त्री(बी.एड)है,और आचार्य के लिए अध्ययनरत(एम.ए.)हैं। आप वेदों का अध्यापन कराते हैं। निवास मध्यप्रदेश के गांव-भँवरासा (तह.जीरन,जिला नीमच) में है।