अभियान पर अंकित होते प्रश्नचिंह

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देश के विभिन्न प्रदेशों में इन दिनों सडक सुरक्षा माह का विशेष आयोजन किया जा रहा है। सरकारी विभागों में परिवहन, पुलिस और नगर निकायों को विशेष बजट आवंटित करके उनके उत्तरदायत्वों को निर्धारित किया गया है। यानी इस माह में सडक दुर्घटनाओं पर लगाम लगाने के साथ-साथ वाहन चालकों से लेकर राहगीरों तक को जागरूक किया जायेगा। राजमार्गों से लेकर सडक-चौराहों आदि को जाम विहीन किया जायेगा। सडकों पर फैला अतिक्रमण हटाया जायेगा। पार्किंग विहीन संस्थानों पर कार्यवाही की जायेगी। ऐसे अनेक उद्देश्यों की कागजी खानापूर्ति करने का क्रम चल निकला है। देश को दस्तावेजी विकास पथ पर दौडाने की पुरानी परम्परा यथावत चल ही नहीं रही है बल्कि वर्तमान समय में तो उसके पंख भी निकल आये हैं। आयोजन के नाम पर वही पुराना ढर्रा फिर देखने को मिल रहा है। दुपहिया वाहन चालकों के कागजात जांचे जा रहे हैं, हैलमैट न होने पर चालानी कार्यवाही हो रही है। चार पहिया वाहन चालकों को सीट बैल्ट, कांच पर फिल्म, प्रदूषण प्रमाण पत्र सहित अनेक मानकों पर उतारा जा रहा है, किन्हीं खास कारणों से डम्परों, ट्रकों, बसों, आटो रिक्शा, ई-रिक्शा, टैक्टरों आदि की मनमानियों को निरंतर अनदेखा किया जा रही है। हर बार निरीह दुपहिया चालकों और चार पहिया वाहनों वालों पर ही सडक सुरक्षा के नाम पर चलाये जाने वाले अभियानों की गाज गिरती है। जब कि अधिकांश बसों, डम्परों आटो रिक्शा और टैक्टरों आदि पर तो नम्बर सिक्यूरिटी नम्बर प्लेट की कौन कहे उन पर साधारण नम्बर प्लेट तक नहीं होती। अनियंत्रित गति से भागते ये वाहन साक्षात यमराज के दूत बनकर निरंतर लोगों को काल के गाल में पहुंचा रहे हैं। यही हाल सडकों पर अवैध ढंग से होने वाली पाकिंग का भी है। छोटी दुकानों के सामने खडे वाहनों पर लाक लगाकर पुलिस की चालानी कार्यवाही हो रही है जब कि छोटे कस्बों के बडे शापिंग काम्पलेक्सों में पार्किंग की सुविधा न होने के बाद भी वे निरंतर संचालित ही नहीं हो रहे हैं बल्कि उनके सामने की सडक पर खडे होने वाले वाहनों की भीड से रास्ते लम्बे समय तक जाम का शिकार होते हैं। यही हाल बैंक सहित अन्य बडे प्रतिष्ठानों का भी है। ऐसे में न तो इन प्रतिष्ठानों पर कोई कार्यवाही होती है और न ही यहां आने वाले ग्राहकों के वाहनों पर अभियान का ही कोई फर्क पडता है। इस तरह के अभियानों के उत्तरदायी विभाग भी औपचारिकताओं को पूरा करके कागजी आंकडों के आधार पर स्वयं अपनी पीठ थपथपाने की जुगाड कर लेते हैं। देश में विकास के मापदण्ड निरंतर बदलते जा रहे हैं। दस्तावेजी समीकरणों को ही महात्व दिया जा रहा है। धरातली हकीकत से मुंह मोडने का फैशन चल निकला है। कोरोना काल के बाद से तो निरीह लोगों को सताने की अघोषित नीति ही बन गई है जिस पर सरकारी महकमें पूरी तरह से गम्भीर नजर आ रहे है। इस तरह के अभियानों में जागरूकता के कीर्तिमान गढने हेतु पहले सरकारी स्कूलों के छात्रों को चुन लिया जाता था। उनकी पढाई का ज्यादा समय इसी तरह के अभियानों की सफलता की गारंटी में जाया होता था परन्तु इस बार स्कूलों में छात्रों की प्रत्यक्ष उपस्थिति न होने के कारण उत्तरदायी विभागों ने उन स्वयंसेवी संस्थाओं को चुना है जिन्हें सरकारी योजनाओं हेतु बजट उपलब्ध कराया जाता है। कुल मिलाकर अधिकांश स्थानों पर जागरूकता की खानापूर्ति हेतु कुछ चयनित संस्थाओं और कार्यवाही के लक्ष्य हेतु दुपहिया और चार पहिया वाहनों के चालकों को चिन्हित किया गया है। ऐसे में यदि कोई चालक भेदभाव पूर्वक चल रही इस कार्यवाही पर प्रश्नचिंह करने की कोशिश करता है या स्वयंसेवी संस्था मुहरा बनने से इंकार करती है तो उसे सरकारी कर्मचारी भाई-भाई के नारे के साथ स्वयं के उत्पीडन हेतु तैयार रहना चाहिये। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

 डा. रवीन्द्र अरजरिया

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