
हे! काग विहग ‘व्यथा ऊर्मिले’
आज तुम्हीं से कहती हूं…
अंखियां प्रियतम ढूंढ रही है
विरह में बरबस बहती हूं..।
मेरे प्रियतम छोड़ गए हैं..
अश्रु भी ना बहा सकूं..
योगिनी गर में बन जाऊं…
क्या मर्यादा का त्याग करूं..?
पुत्रवधू हूं कौशल की मैं
विरह कथा यें कहती हूं..
प्रेम पड़े ना बाधा पथ पर
लखन लिए सब सहती हूं..।
मिलने पर वनवास राम को
प्राणप्रिया जानकी चली..
तुम मुझको क्यों छोड़ गए..?
मृतप्राय बस.. मृत्यु टली..
सूर्य चंद्र के उदित-अस्त से
बिछौह द्वि-दूना सहती हूं..
प्रेम विरह के तप में तप कर..
कंचन सोना रहती हूं…।
हे! विधि विधाता,चतुरानन
कमलासन मेरी कथा लिखी..
क्या तरस ना खाया हृदय तुम्हारा.?
भगिनी संग मेरी व्यथा लिखी..
रामानुज है प्रियवर मेरे
शेष की शय्या रहती हूं..
आशातीत अतीत की ठिठुरन..
मनोभाव सब कहती हूं..।
पंछी विहग संग नभचर प्राणी
है कैसे उन्मुक्त सभी..?
ऊर्मि संग ये भी विकल् हुए
क्या अज्ञानी है..रिक्त सभी..?
हृदय में सिंधु बांध लिए हूं..
हंसते-हंसते कहती हूं..
शरण में लेंगे,व्याकुलता में..
छवि ढूंढते रहती हूं..।
अपने मन को आप मनाऊं..
शोक,खेद ना जता सकूं..
धरोहर हूं प्रियतम की प्यारी..
देह त्याग.. ना रम़ा सकूं..
विधना कितने दिवस शेष है..?
राह निहारत रहती हूं..
राजभवन की वनवासी ‘मैं’
काग विहग से कहती हूं..।