
◆ शिखा अर्पण जैन, इंदौर
शब्द बदलें, काम बदला, तारीख़ बदली, साल बदला, केलेण्डर बदलें, युग बदला, पर कही कुछ आज भी बदलने से रह गया है तो वह है समाज की सोच। कहते हैं आज हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं पर हमारा सोचने का तरीका बिल्कुल अट्ठारवीं सदी जैसा है। आज भी हम बेटी को पराया मानते हैं। अगर आज भी बेटी पैदा होती तो उसको बोझ समझा जाता है, आज भी बेटी की जगह बेटे को अधिक महत्त्व देते हैं, अगर ये सोचा जाए कि वो हमारा अंश है तो बहुत कुछ बदल सकता है।
आज हमारे देश में महिला साक्षरता 65.47% है, आज भी हमारे देश की 34.53% महिलाएँ शिक्षा से दूर हैं। उसके कई कारण हैं, जिसमें से पहला कारण बेटी को पराया मानना, हम ये सोचते हैं इसको स्कूल भेज कर क्या करना इसको तो पराये घर ही जाना है या कौन-सा परिवार को कमा कर खिलाएगी! पर हम ये क्यों नहीं सोचते कि अगर हम बेटी को पढ़ाते हैं तो वो तो आगे की पीढ़ी को भी शिक्षा दे सकती है। वो ख़ुद तो पढ़ेगी, साथ ही आने वाली पीढ़ी को पढ़ाएगी। दो कुल का मान बढ़ाएगी।
क्या सच में बेटी परायी होती है? अगर हाँ तो…..फिर क्यों हम उनसे वंश बढ़ाने की उम्मीद करते हैं? क्यों हम मान और सम्मान की बात बेटी से करते हैं, अगर बेटी कुछ अच्छा काम करें तो हमारी वरना परायी, ये दोगलापन क्यों? हम एक छोटी-सी बात नहीं समझना चाहते कि स्त्री ही समाज की सृजक और संवाहक है। अगर हम उसको सम्मान देंगे, अच्छी शिक्षा देंगे, तो हम एक अच्छे और स्वस्थ समाज को पोषित करेंगे।
अगर बेटी बढ़ेगी तो समाज बढ़ेगा और समाज बढ़ेगा, सफल होगा तो हम बढ़ेगे, सफल होंगे। अगर हम ख़ुद का विकास चाहते हैं तो बेटी को कभी परायाधन कहकर उलाहना मत दो, बेटी हो या बेटा दोनों हैं तो संतति यानी समान और दोनों ही समाज के अंग हैं।
हमें अगर आगे बढ़ना है तो इस भेद को दूर कर उनको आगे लेकर लता मंगेशकर, कल्पना चावला, इंदिरा गाँधी जैसी शख़्सियत बनाना होगा, जिसको दुनिया याद रखे। हम हमेशा ये सोचते हैं कि बेटा बुढ़ापे में हमारा सहारा बनेगा इसलिए बेटे को पढ़ाना ज़रूरी है पर हम ये क्यों नहीं सोचते कि बेटी भी तो हमारा सहारा बन सकती है। जब माँ ने दोनों को जन्म देने में समान तकलीफ़ उठाई फिर परवरिश में समानता क्यों नहीं?
बेटी भी बेटे की तरह आपके कंधे से कंधा मिला कर चल सकती है, ज़रूरत है सिर्फ़ एक मौका देने की और अपनी सोच बदलने की। हमारे समाज में आज भी ये सोच है कि बेटे से वंश चलता है पर कभी किसी ने ये सोचा कि सिर्फ़ बेटा ही वंश आगे बढ़ा सकता है क्या? उसको भी वंश को आगे बढ़ाने के लिए किसी स्त्री का सहारा लेना होगा तभी वंश आगे बढ़ पायेगा । जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही समाज के दो पक्ष होते हैं स्त्री और पुरुष। हमें दोनों को समान भाव से रखना चाहिए, दोनों के प्रति सोच, भावनाएँ, परवरिश समान रखनी चाहिए, ताकि राष्ट्र की प्रगति में दोनों का योगदान हो और हम भेदभाव वाली बुराई से भी निज़ात पाकर अपनी बेटी को ससम्मान समाज में जीवन यापन के लिए तैयार कर सकें । लड़की भी लड़कों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर राष्ट्र की प्रगति में निर्णायक बने।
#शिखा अर्पण जैन
कोषाध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान,
इन्दौर, मध्यप्रदेश
*परिचय
*नाम* : शिखा जैन
पति : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
माता : श्रीमती राजेश्वरी जैन
पिता : श्री शरद ओस्तवाल
जन्म : 04 सितम्बर
भाषा ज्ञान : हिन्दी, अंग्रेज़ी
शिक्षा – स्नातक (बी.कॉम) विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन, एम.कॉम स्नातकोत्तर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन
सम्प्रति – सह-संस्थापक , सेंस टेक्नोलॉजीज,
संस्थापक, संस्मय
राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान
कोषाध्यक्ष, वृन्दाविहान बहुउद्देशीय संस्था
विशेष – कई वर्ष से प्रकाशक/प्रकाशन के क्षेत्र में दख़ल, साथ ही, संस्मय प्रकाशन की संस्थापक, मातृभाषा उन्नयन संस्थान की राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार एवं हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने के लिए जारी आन्दोलन का हिस्सा हूँ। हिन्दीग्राम की संयोजिका।
लेखन
• कविताएँ एवं लेख
• कई पुस्तकों का संपादन किया।
• प्रकाशित – समाचार पत्र – पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर कविता एवं लेख प्रकाशित
सम्पादन
● वुमन आवाज़
● नारी से नारी तक
● स्त्रीत्व
● आधी आबादी
● कोरोनाकाल एवं साहित्य ग्राम
● प्रथम सृजक
सम्मान
• चित्रगुप्त सम्मान
● वुमन मीडिया अवॉर्ड 2020
● नई कलम सम्मान