हे श्रमजीवी तुम चलते जाना,
खनन कर निज तृष्णाओं का..
तर्पण कर मन की दुर्बलताओं का
भीति तुम्हारे देव नहीं हैं
क्या कर्मों पर संदेह कहीं है?
तिमिर राह को भेदकर बन्धु,
विजयश्री पथ पर बढ़ते जानाl
हे श्रमजीवी तुम चलते जानाll
है बहुत जटिल यह जीवन रण,
व्यथित करे प्रति पल-प्रति क्षण..
देखो तनिक इन मधुमक्षिकाओं को
निज श्रमदान करें मानवजन को
श्रम ही तो है साध्य तुम्हारा
शीश उठा उत्तुंग शिखर पर चढ़ते जाना।
हे श्रमजीवी तुम चलते जाना॥
परिचय : १९८९ में जन्मी गुंजन गुप्ता ने कम समय में ही अच्छी लेखनी कायम की है। आप प्रतापगढ़ (उ.प्र) की निवासी हैं। आपकी शिक्षा एमए द्वय (हिन्दी,समाजशास्त्र), बीएड और यूजीसी ‘नेट’ हिन्दी त्रय है। प्रकाशित साहित्य में साझा काव्य संग्रह-जीवन्त हस्ताक्षर,काव्य अमृत, कवियों की मधुशाला है। कई पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित होती हैं। आपके प्रकाशाधीन साहित्य में समवेत संकलन-नारी काव्य सागर,भारत के श्रेष्ठ कवि-कवियित्रियां और बूँद-बूँद रक्त हैं। समवेत कहानी संग्रह-मधुबन भी आपके खाते में है तो,अमृत सम्मान एवं साहित्य सोम सम्मान भी आपको मिला है।
बहुत सुंदर और प्रेरक गीत बधाई आपको