यूँ ही छटपटाता नहीं

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abdul
डर अंधेरों का कुछ भी सताता नहीं,
साथ मुझको उजालों का भाता नहीं।
अक्स जबसे मिरा आइना हो गया,
ये जमाने से कुछ भी छिपाता नहीं।
मुझको जिसका तसव्वुर रहे रात दिन,
रूबरू इक घड़ी को भी आता नहीं।
दिल मे खंज़र  चुभा है मगर दोस्तों,
ज़ख्मे-दिल मैं किसी को दिखाता नहीं।
दास्तां मुफ़लिसी की मैं क्या अब कहूँ,
घर में मेहमान तक भी तो आता नहीं।
पंख मिलते अगर मेरी परवाज़ को,
मैं जमीं पर यूँ ही छटपटाता नहीं।
प्यासे सहरा पे हंसता रहा वो मगर,
अब्र एक बूंद पानी गिराता नहीं।
मंज़िलों की तलब है मुसाफिर तुझे,
फिर क़दम क्यों सफर में बढ़ाता नहीं॥
            #अब्दुल रऊफ ‘मुसाफ़िर’
परिचय : अब्दुल रऊफ ‘मुसाफ़िर’ को लिखने का शौक है। आप मध्यप्रदेश के सेंधवा(जिला बड़वानी) में रहते हैं। 
 

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