गाँव यानी ‘दिल’ और शहर मतलब..

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sanjay yadav
अक्सर पूछता है वो शख्स क्या है तेरे गांव में मेरे शहर से बढ़कर..जो तू करता है कुछ यूं बड़बोलापन। जहाँ, गाय गोबर देती है और माँ उस पर अधपकी रोटी बनाती है..क्या रखा है रे बड़बोले तेरे उस गांव में?
अब तक क्या देखा तूने गांव में..सुन दिखावटी रौनक के बाशिन्दे-तुम कहते हो क्या अंतर है गांव और शहर में, तो में कहता हूं इतना ही अन्तर है मेरे अपने उस गांव में कि वहाँ (गांव) कुत्ते आवारा घूमते हैं और गौमाता पाली जाती है और शहर में कुत्ता पाला जाता है और गौमाता आवारा घूमती है। मेरे गांव का अनपढ़ आदमी गाय चराने जाए और शहर का पढ़ा लिखा आदमी कुत्ता टहलाने जाए।ऐसे ही जीवन का है तो ये कड़वा सच कि,अनाथ आश्रम में बच्चे मिलते हैं गरीबों के और वृद्धाश्रम में बुजुर्ग मिलते हैं अमीरों के..। वक्त के साथ सब बदल जाता है दोस्त। पुराने ज़माने में जिसे हम ठेंगा कहते थे,उसे आज इस गुमनाम शहर में पसंद(लाइक) कहते हैं। था चलन जब उस खनकते हुए एक रुपए के सिक्के का,जिस पर गेंहू की बाली लहलहाते हुए बयां करती थी कि,तू भूखा नहीं सोएगा ,और आज उसी सिक्के का रूप बदल गया है। कुछ ऐसा ही उलटा है मेरे उस गांव में,जहाँ आज भी धुंए से टपकते आंसू पोंछते हुए प्यार से मां रोटी खिलाती है,जहाँ कभी भूखा भी सोना पड़ता है, यही बड़ी खूबी है मेरे गांव की। करो कभी रुख उस गांव का,जहाँ प्यार,अपनेपन के बाद हर बात लगती है खोटी। इसीलिए कहता हूं दोस्तों,सवाल पर खरा जवाब है,अब इसे दिल पर लो या दिमाग पर..।मेरा तो यही कहना है कि-
‘ गाँव को गाँव ही रहने दो साहब,
क्यों शहर बनाने में तुले हुए हो..
गांव में रहोगे तो माता-पिता के नाम से जाने जाओगे,
शहर में रहोगे तो मकान नम्बर से ही पहचाने जाओगे।।’

                                                                                #संजय यादव
परिचय :
संजय यादव इंदौर में खण्डवा रोड पर रहते हैं और जमीनी रुप से सक्रिय पत्रकार हैं। आपने एम.कॉम,एम.जे. के साथ ही इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय से एमबीए भी किया है। कई गम्भीर विषयों पर आप स्वतंत्ररुप से कलम चलाते रहते हैं।

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