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आजकल आक्रामक भाषा चलन में है, इसे चलन कहा जाय या सभ्यता का ह्रास आखिर क्या कहा जाय इसे ?समय और युगीन सन्दर्भों के बदलाव के साथ लोकतंत्र में भी भाषा के जायके बदल रहें है इसके हाल ही में कई उदाहरण देखने में आये हैं जिसमें भाषा की मर्यादा कुछ इस तरह लांघी गई जो बेहद शर्मसार करने वाली थी जिसमें एक महिला राजनेता के विषय में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया था वह शर्मनाक है| जिस पर गंभीरता से काम करना उतना ही जरुरी है जितना वोट डालना |पहला मुद्दा भाषाकी मर्यादा का है दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा महिला के विषय में शब्दों की अभद्रता का,यह इस बात पर प्रश्न चिन्ह लगाती है की क्या ऐसे नेता देश का प्रतिनिधित्व करने के योग्य है ? एक दूसरे के विपक्षी होने का अर्थ यह नहीं की भाषा की मर्यादाओं के परे चले जाय यह बात दोनों ही पक्षों पर समान रूप से लागू होती है लोकतंत्र में जिस प्रकार शपथ की भाषा बेहद अनुशासित है वैसी ही भाषा की मर्यादा इससे जुड़े अन्य विषयों पर क्यों नहीं होती यह विचारणीय है, फिर वह विषय चाहे चुनाव अभियान का ही क्यों न हो,नेताओं के नीति निर्धारण से लेकर उनकी घोषणाओं तक सबमें भाषा आहत ही होती पाई जाती है |आखिर क्यों हमें भाषाई हिंसा नहीं खटकती जबकि भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ आत्म-अनुशासन की व्यवस्था है किन्तु दोनों में से केवल प्रथम वाले अधिकार का भरपूर और मनमाना प्रयोग किया जाता है |अगर नीति निर्धारकों के नजरिये से यह विमर्श का विषय नजरअंदाज किया जा रहा है तो साहित्य और कलाएँ जो भाषा की उच्चतम अभिव्यक्ति का पर्याय मानी जाती है उन्हें इस और कुछ कदम उठाने चाहिए |क्यों न संविधान में राजनीतिज्ञों की भाषा भी निर्धारित कर दी जाय जिससे कम से कम नेताओं द्वारा शब्दों के अतिक्रमण से आमआदमी की भावनाओं को आहत होने से बचाया जा सकेगा ,युवा पीढ़ी भाषा के इस तरह के बर्ताव से आक्रोशित भाव पैदा होने से रोक सकेगी |लोकतंत्र को भाषा के अपराधीकरण से रोकना, भाषा के बर्ताव पर आवश्यक कदम उठाना भी उतना ही जरुरी मुद्दा है जितना वोट डालना क्योकि मनुष्य भाषा में जीता है जो की हमारी सभ्यता का परिचायक हैं यह लोकतान्त्रिक मूल्यों का हिस्सा है | मिडिया जिसकी समाज में सबसे अहम भूमिका है इस विषय पर गंभीरता दिखाने की आवश्यकता है |सभ्य, मर्यादित और अनुशासित भाषा केवल नीति निर्धारक पृष्ठों पर अंकित करने के लिए नहीं होती संवाद करते समय अथवा मंच पर उद्बोधन देते समय भी उनका प्रयोग होना उस नीति का एक हिस्सा है | लोकतंत्र में भाषा की मर्यादा भी उतना ही महत्वपूर्ण विषय है जितना चुनाव में वोट डालना |साहित्य में जो भाषा मानव को संस्कारित करती है राजनीति में वही अपनी शुचिता क्यों खो देती है क्या यह कुशल राजनीतिज्ञों के दायित्व का हिस्सा नहीं है इस विचारणीय विषय को इस बार चुनावी परिणामों के साथ ही अमल में लाया जाय तो लोकतंत्र में बहुत कुछ खोने से बचाया जा सकेगा |
#प्रो. शोभा जैन
परिचय:– प्रो.शोभा जैन(लेखिका/समीक्षक)इंदौर
शिक्षा, साहित्य एवं हिन्दी भाषा से जुड़े विषयों पर स्वतंत्र लेखन |हिन्दी साहित्य की गद्य विधा –समीक्षा,आलेख निबंध,आलोचना एवं शोध पत्र लेखन में विशेष रूप से सक्रिय विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र –पत्रिकाओं में सम-सामयिक विषयों पर निरंतर प्रकाशन| साहित्य एवं शिक्षा सम्बन्धी राष्ट्रीय शोध संगोष्ठीयों एवं कार्यशालाओं में सक्रीय सहभागिता| आईडियल असेट ग्रुप की मेनेजिंग डायरेक्टर के रूप में इन्वेस्टमेंट एवं फाईनेंशियल प्रबंधन(निवेश एवं अर्थ प्रबंधन) एवं प्रशिक्षक के रूप में कार्यानुभव| |शिक्षा विभाग में नई पीढ़ी के लिए उनके कौशल विकास एवं समस्याओं के समाधान हेतु काउंसलर के रूप में पूर्व कार्यानुभव |शैक्षणिक योग्यता –बी.काँम, एम.ए. हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य में पूर्वार्द्ध, पीएच-डी.हिन्दी साहित्य| निजी महाविद्यालय में हिन्दी की प्राध्यापक/अतिथि प्राध्यापक | उद्देश्य: शिक्षा साहित्य एवं हिन्दी भाषा के विकास में प्रयासरत निवास इंदौर (मध्यप्रदेश)
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Tue May 28 , 2019
हिंदी के देदीप्यमान नक्षत्र दिनकर, गुप्त, निराला,पंत।है जन -जन की भाषा गाएं इसकी मंगलगाथा। राष्ट्र की शान, एकता की पहचान, जन -जन की भाषा है हिन्दी। हिंदी देश को एकता के सूत्र में बांधने वाली भाषाओं में है। हिंदी जिसे निराला ने पहचाना, सुभद्रा ने सहेजा ,गुप्त ने अपनाया, और […]