हिन्दी के विकास का शाब्दिक जमा खर्च

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 shobha jain
आजकल हिंदी अपनाने और अंग्रेजी की तिलांजली देने के कर्तव्य और संकल्प दोहराएँ जा रहें है |पर सरकारी कागजों पर हिन्दी कहाँ तक और किस स्तर तक पहुँची इस बात से सब नावाकिफ ही है |भाषा विज्ञानी  डॉ.जय कुमार जलज ने अपने शोध ग्रन्थ ‘भाषा विज्ञान’ में प्रकाशित एक लेख में स्पष्ट किया है —‘यूनेस्कों की मान्यता है की बच्चा एक अनजान माध्यम की अपेक्षा मातृभाषा के माध्यम से अधिक तेज गति से सीखता है |लेकिन हमारी नीति और सरकार गाँवों की प्राथमिक शालाओं में भी अंग्रेजी लादने की तैयारी में है अभी चुनावी दौर चल रहा है क्या व्यवस्था की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ हिन्दी और हिन्दी साहित्य के लिए कोई घोषणा की जाएगी अगर की भी जाएगी तो क्या उसे अमल में लाया जाएगा यह एक बड़ा प्रश्न है |आज कश्मीर और राजभाषा दोनों ही समस्याएँ नासूर बन कर रह गई हैं |चुनावी घोषणा पत्र में हिंदी और हिंदी साहित्य के लिए अंतिम बार किस राजनेता ने कौन सी घोषणा की थी मेरी जानकारी में नहीं है किन्तु समसामयिक संदर्भों में इस घोषणा की जरूरत मूलभूत आवश्यकताओं की तरह ही है |आज हिन्दी भाषा के विकास को लेकर नवोदित लेखक,बुद्धिजीवी स्वयं हिंदी के प्राध्यापक चिंतक सभी चिंतित है जब सब किसी एक ही विषय को लेकर चिंतित है तब इसका सार्थक समाधान क्यों नहीं ?केवल स्लोगन चस्पा कर देने से, कुछ दिन नारे बाजी कर लेने, एक भीड़ जमा कर भाषण दे देने से, आयोजनों समारोह में मंत्री नेता को सम्मानित कर अथाह पैसा बहा देने का हिंदी के विकास से कोई सम्बन्ध नहीं |हम अंग्रेजी के विरोध में जो उर्जा लगा रहें है उतनी उर्जा शक्ति और धन हिन्दी के प्रयोग में अगर खर्च करें तो शायद परिणाम शून्य से उपर मिलते नजर आयें |हिन्दी भाषा और शैली के  गिरते स्तर पर भाषा वैज्ञानिक चिंतित है उनकी चिंता का विषय है की वे लेखक है नीति निर्धारक नहीं जो इस दिशा में अपने स्तर पर कोई कदम उठाकर निर्णायक मोड़ ला सके |हिन्दी पर इतना दबाव होने के बावजूद भी यह केवल आम लोगो की बोलचाल की भाषा से अधिक स्तरीय साँचें में अभी तक नहीं ढल पाई है |उसमें भी हिंदी पत्रकारिता और साहित्यकार की कलम की मोहताज हो गई है इससे अधिक हिन्दी के विकास यात्रा में कोई जुझारूपन दिखाई नहीं पड़ता जितना अंग्रेजी के प्रति जोश और आत्मविश्वास दिखाई पड़ता है | उच्च शिक्षा में हिंदी के पाठ्यक्रम की प्रमाणिक पुस्तकों की अपर्याप्तता ,शासन की अधिसूचना प्रपत्र और राजपत्रों की क्लिष्ट अस्पष्ट भ्रामक भाषा की वजह से हिंदी अपनाने का भाव शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाता है यह भी विचारणीय है | जबकि ये आम आदमी की समझ के दायरे में भी नितांत आवश्यक है |यहाँ दो आवश्यकतायें दिखाई पड़ती है प्रथम हिन्दी का प्रयोग होना दूसरा सरल भाषा में शाब्दिक क्लिष्टता से बचते हुए प्रयोग होना | लोकसभा के आम चुनाव में यह उम्मीद की जाती है की चुनावी  घोषणा पत्र में व्यवस्था की मूलभूत आवश्यकता  का एक हिस्सा  यह भी हो कि हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए कोई विशेष घोषणा हो जो अमल में भी लाई5 जा सके तो निश्चित ही यह हिन्दी के उत्थान में शाब्दिक जमा खर्च से कुछ अधिक उपर का लेखा जोखा होगा |
#प्रो. शोभा जैन
परिचय:– प्रो.शोभा जैन(लेखिका/समीक्षक)इंदौर 
     शिक्षा, साहित्य एवं हिन्दी भाषा से जुड़े विषयों पर स्वतंत्र लेखन |हिन्दी साहित्य की गद्य विधा –समीक्षा,आलेख निबंध,आलोचना एवं शोध पत्र लेखन में विशेष रूप से सक्रिय विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र –पत्रिकाओं में सम-सामयिक विषयों पर निरंतर प्रकाशन|  साहित्य एवं शिक्षा सम्बन्धी राष्ट्रीय शोध संगोष्ठीयों एवं कार्यशालाओं में सक्रीय सहभागिता| आईडियल असेट ग्रुप की मेनेजिंग डायरेक्टर के रूप में इन्वेस्टमेंट एवं फाईनेंशियल प्रबंधन(निवेश एवं अर्थ प्रबंधन) एवं प्रशिक्षक के रूप में कार्यानुभव| |शिक्षा विभाग में नई पीढ़ी के लिए उनके कौशल विकास एवं समस्याओं के समाधान हेतु काउंसलर के रूप में पूर्व कार्यानुभव |शैक्षणिक योग्यता –बी.काँम, एम.ए. हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य में पूर्वार्द्ध, पीएच-डी.हिन्दी साहित्य| निजी महाविद्यालय में हिन्दी की प्राध्यापक/अतिथि प्राध्यापक | उद्देश्य: शिक्षा साहित्य एवं हिन्दी भाषा के विकास में प्रयासरत निवास इंदौर (मध्यप्रदेश)

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