गुजर गया

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गुजर गया

एक और साल।

पहले बहुत कुछ होता था

एक साल में।

एक साल कई साल में आता था।

अब तो जैसे

महीने महीने बदलता है साल।

त्योहार एक के बाद एक

दरवाजे के सामने से गुजर जाते हैं।

गोल घूमते खिलौने की तरह।

न वे रुकते हैं मेरे लिए

और न मैं पहले से तैयार मिलता हूं

उनके लिए।

*

आज कल तो

कभी-कभी दिन तारीख

पूछनी पड़ती है।

कितना याद रखें

कैसे याद रखें ?

बस..सुबह शाम ..सुबह शाम।

दोपहर भी

आती ही होगी

बीच में।

अक्सर भूल जाता हूं

दोपहर से मिलना।

सूरज के जाने से

शाम होती है।

फिर रोशनी के साथ

सुबह हो जाती है।

अब तुम भी तो याद नहीं दिलाती?

पता नहीं तुम्हें भी याद रहता है

या नहीं?

*

चलो कुछ नया करते हैं

मैं नया पौधा लगाता हूं।

तुम कुछ बिल्लियां पाल लेना।

#विजय कुमार अग्रहरि’आलोक’

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