एक राष्ट्र विभिन्न भाव एवँ विचारधाराओं एक संग़ठित रूप है और साहित्य उनकी अभिव्यक्ति से बना हुआ शब्दमय चित्र |
हमारी जीवंगत विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनौतिक स्थितियों का ही साहित्य में चित्रण होता है | इन्ही से दैनिक जीवन प्रभावित होता है और इन्ही के उत्कर्षोंपकर्ष में राष्ट्र निर्माण एवँ विनाश के स्वप्न, आशा– आकांक्षाएँ छिपी रहती है |
साहित्य प्रत्येक राष्ट्र की अक्षुण्ण निधि होता है , उसकी पुरातन संस्कृति की अमर धरोहर होता है और वही भावी संतान की बपौती भी | साहित्य की परिभाषा के लिए हमारे यहाँ ‘ सहितेन भव सहित्यम् ‘ कहा गया है| “भव” से आशय हमारे अंत:स्थ उन मनोविकारों से है जो प्रेम, दया, करूणा, लज्जा, क्रोध ,आक्रोश आदि के रूप में सदैव विद्यमान रहते है और अनुकुल परिस्थितियों में जिनकी वाह्याभिव्यक्ति होती है|साहित्य का महत्व निर्विवादरूप से स्वीकार किया जाता है| साहित्य की शक्ति तलवार की शक्ति से कहीं अधिक होती है| यह मानवीय विचारों को द्वार–द्वार पहुँचाने में सफल होता है, यही अकर्मठ को कर्मठ, डरपोक को निर्भय और मनुष्य को मनुष्य बनाता है| उसमें जहाँ अतीत की सजीव झाँकी मिलती है वहाँ वर्तमान की क्रिया– प्रक्रिया एवँ योजनाओं के दर्शन होते है तथा उसी में ‘तमसो मां ज्योतिगर्मय’ का पावन पाठ पढ़ाया जाता है |वही जीवन के रहस्य को स्पष्ट कर जीने की प्रेरणा देता हुआ मनुष्यत्व की ओर उन्मुख करता है और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले जाता है |एक सच्चा साहित्य ही हमारे अतीत के चित्र को प्रस्तुत कर वर्तमान में उज्जवल भविष्य किरणों को प्रस्फुटित करता है | साहित्य ही हमें ‘सत्यं–शिवं सुंदरम्’ की झाँकी कराता है| यही हमें जीवन में जीने की प्रेरणा देता है और यही हँसते–हँसते देशहित के लिए प्राण–बलिदान का अमर साहस प्रदान करता है| यहीं भूखे – नंगों के प्रति हमारे अंतस् में नयी करूणा को जगता है और यही अन्याय के प्रति शोध के लिए हमारी नसों में रक्त प्रवाहित करता है| भला जिस साहित्य की जीवन में इतनी उपादेयता एवँ महत्ता है वह राष्ट्र निर्मार्ण की आधार शिला हो और सम्प्रदायिक दौर में भी सद्भावना की भावना रखे तो इस में आश्चर्य क्या ? विश्व इतिहास इस बात का प्रतीक है कि किस प्रकार साहित्य और मातृभाषा के उत्थान के साथ अनेक पतनोन्मुख राष्ट्र उत्कर्ष के शिखर पर आसीन हुए हैं ? वहाँ की सभ्यता और संस्कृति की गौरव गरिमा किस प्रकार साहित्य रूपी नक्शे में अनेक उपद्र्वों के पश्चात् भी सुरक्षित बनी रही हैं ?
रूस की क्रांति का श्रेय और भारत की स्वाधीनता का श्रेय एक मात्र वहाँ के साहित्य को ही है|
जिस राष्ट्र में साहित्य का अस्तित्व नहीं, जहाँ साहित्य विकास का कोई प्रयास नही, वह देश प्राणहीन है, सजीव होकर भी निर्जीव है , चेतन होकर भी जड़ है—– “मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नही है”| जिस देश का साहित्य उन्नत होता है ,वह देश भी नि:तर्क उन्नति के पथ का अनुगामी होता है ,साहित्य सिर्फ देशवासियों में सदभावना सहिषुणता का संचार ही नही बल्कि राष्ट्र निर्माण में प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों दृष्टियों से अत्यधिक सहयोग प्रदान करता है| यदि हम अपने प्राचीन संस्कृति–साहित्य को उठाकर देखें तो भारत की पवन भूमि का सम्पूर्ण वैभवज्ञान–विज्ञान का अथाह उदधि ,कला का अक्षय मधुर स्त्रोत , लेखन साहित्य का विस्तृत भंडार, कारीगरी का कला–कौशल और दैनिक जीवन में सुख समृद्धि का अतुल कोष उसके शब्द चित्रों में प्रत्यक्ष दीख पड़ेगा| विदेशी उसके समक्ष अवनत होते थे | दूर–दूर विदेशों से छात्र विद्धाध्ययन के लिए आते थे | हम ज्ञान –विज्ञानके क्षेत्र में जगत गुरु कहे जाते थे | आखिर किसके बल पर ?
साहित्य ही तो इसका मूल था |
साहित्य वही राष्ट्रीय नाम से विभूषित हो सकता है जो राष्ट्र का पूर्णत: प्रतिनिधित्व कर सके | यद्यपि यह ठीक है कि साहित्यकार जिन क्षणों में साहित्य या कव्य का सृजन करता है , उनमें वह विश्व के समान धारातल से कुछ ऊपर उठ जाता है : सुख– दुख: की क्षणिक भौतिक अनुभूति से दूर अलौकिकनंद में निमग्न रहता है | तभी तो काव्य को आनंद का स्त्रोत कहा जाता है| लेकिन इसका आशय यह नहीं कि वह युगों की प्रवृतियों से प्रभावित नहीं हो सकता या नहीं होता अगर ऐसा मान ले तो पाठक– मात्र को साहित्य – पाठन से क्यों आनंद मिलता है ? निसंदेह: साहित्य व्यक्तिगत सृजन होते हुए भी जन सामान्य की, उस समाज की, उस राष्ट्र की अमूल्य निधि है| तभी तो समाज का, राष्ट्र का , उस पर पूर्ण अधिकार होता है | दैनिक जीवन के जिन घात– प्रतिघातों से साहित्यकार प्रभावित होता है , उंही का एक आकर्षक चित्र वह साहित्य में खींचता है जो हमारे अंतस् को छूने में सफल होता है | यदि साहित्य क्षणिक मनोरंजन का ही साधन हो तो सच्चा या युगीन साहित्य कदपि नहीं हो सकता|
संस्कृत साहित्य इन दोनों गुणों से पूर्ण था | लेकिन जब जब विदेशियों को भारत आने के लिए प्रवेश द्वार खुला मिला , भारतीय साहित्य दूषित होता गया , सम्प्रदायिकता की भावना उसमे घर कर गयी , उसकी राष्ट्र निर्माण की शक्ति क्षीण होती गयी | फ़ारसी भाषा ने उसे अलग प्रभावित किया , लेकिन बाद में अग्रेजों ने तो उसे खोखला ही कर दिया |किसी भी राष्ट्र पर शासन की सफलता के लिए जरूरी है कि प्रथमत: उसके साहित्यिक विकास को रोक दिया जाए | अंग्रेजों ने यही किया| संस्कृत का नाम मिटने लगा और हिंदी के उत्थान पर प्रतिबंध लगा दिया गया |
भारत वर्ष आदिकाल से ही अनेक धर्मों और जातियों का देश रहा है | कोई उसकी ‘’शस्य श्यमला’’ धरती देखकर आकर्षित हुआ तो कोई बर्बर लुटेरा बनकर आया | यूनानियों , शकों , हूणों , मुसलमानों तथा अंग्रेजों ने इस धरती पर अपने -अपने धर्म का विस्तार किया | मुस्लिम काल में संकीर्णता और सम्प्रदयिकता की भावना सर्वाधिक फैली | तीन सौ वर्षों तक शासन करने के बाद भी मुसलमानों में भारतीयता नही पनपी … भारतीय संस्कृति भी उसके लिए अछूत बनी रही |फलस्वरूप भारतीय संस्कृति और मुसलमान संस्कृति सौतेले रुप में पनपती रही | कट्टर पंथी ऑरंगजेब ने इस खाई को अधिक गहरा बना दिया | भक्ति आंदिलन के समय जायसी और कबीर ने इस धार्मिक मदांधता और असहिष्णुता को दूर करने का अथक प्रयास किया| कबीर ने दोनों सम्प्रदायों को एक साथ रहने का उपदेश दिया …
हिंदू कहे मोहि राम पियार, तुरक कहे रहिमान|
आपस में दोऊ लरि लरि मूए, मरम न काहू जाना||
राष्ट्रीयता या सद्भावना के मार्ग को सबसे बड़ी बाधा है साम्प्रदायिकता| साम्प्रदायिकता एक भयंकर विष है , जो सद्भावना की सुदृढ़ दिवार को बहुत ही सहजता के साथ छिद्रमय बना कर उसे ध्वस्त कर देता है | दुर्भाग्य है कि गौतम और गाँधी की इस धरती पर साम्प्रदयिकता ने ऐसा रूप धारण किया है कि प्रारम्भ में विशाल भारत देश और उसका संस्कृत साहित्य दो खण्डों में विभक्त हुअ और आज अनेक खण्डों में विभक्त करने का विश्वव्यापी षड्यंत्र चल रहा है|
सद्भावना के प्रमुख तत्व है भूमि, सामाजिक समांतायें या मान्यताएँ, समान धर्म और एक भाषा का साहित्य… इनसे संचालित व्यक्ति के समक्ष साम्प्रदायिकता का कोई अर्थ नहीं है | राष्ट्रीयता या सद्भावना का सम्बंध मानवीय भावनओं से हैं जबकि सम्प्रदायिकता का सम्बंध मदांधता, संकीर्णता तथा पाश्विकता से| एक में मानवीयता ,सद्भावना, भ्रातृत्व है तो दूसरे में हिंसा , संकीर्णता और विघटन और यही सारे विकासों को रोक देती है फलतः उस राष्ट्र की संस्कृति , उसका साहित्य विनष्ट हो जाता है | न वहाँ कि संस्कृति का वैभव रहता है न ज्ञान की गरिमा| जिस प्रकार जीने के लिए हमें अन्न की अपेक्षा होती है: उसी प्रकार मानसिक विकास के लिए साहित्य की और साहित्य के लिए भाषा की आवश्यकता होती है |
भाषा केवल अभिव्यक्ति ही नहीं है , वह एक राष्ट्र है, एक सभ्यता हैं, एक संस्कृति हैं ,अपने आप में एक साहित्य और राष्ट्रीय और जातीय पहचान का प्रतीक भी हैं |
आज देश के सामने यह प्रश्न चुनौती बन कर खडा है कि बहुभाषाओं वाले इस देश में साहित्यिक– सांस्कृतिक धरोहर को कैसे अक्षुण्ण रखा जाए? देशवासी एक – दूसरे के निकट आकर आपसी मेलजोल और भाई जारे की भावनाओं को कैसे आत्मसात करें? वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि बहुभाषीय देशवासियों के बीच सांमजस्य और सद्भावना की भावनाएं कैसे विकसित हो ताकि प्रत्यक्ष विविधता के होते हुए भी हम अपनी सांस्कृतिक , साहित्यिक समानता एवँ सौहार्दता के दर्शन में अनेकता में एकता की संकल्पना को मूर्त रूप प्रदान कर सके | यही आधुनिक हिंदी साहित्य की सम्प्रदायिकता है जिसमें भाषीय सद्भावना इस दिशा में एक महती भूमिका अदा कर सकती हैं|
सभी भारतीय भाषाओं के बीच सद्भावना का माहौल बनना, एक –दूसरे के प्रति भावानात्मक स्तर पर जुड़ना और पारस्परिक अदान– प्रदान का संकल्प का दृढ़तर होना ही आधुनिक हिंदी सहित्य के सम्प्रदायिक सद्भावना का मूलमंत्र है और इस पुनीत और महान कार्य के लिए सम्पर्क भाषा हिंदी के विशेष योगदान को हम सब को स्वीकारना होगा क्योंकि किसी राष्ट्र का उत्थान और पराभव उसकी संस्कृति और साहित्य के उत्थान पतन से गहरा जुड़ा होता है ..साहित्य का अवसान उस राष्ट्र की भाषा के अवसान के कारण होता है इसलिए अपनी भाषा की उन्नति … अपनी साहित्य की उन्नति का मूल है | हमें भाषा की कोठरियाँ नहीं बनानी है | हिंदी सभी भारतीय भाषाओं के बीच संयोजक भाषा का कार्य कर रही हैं | आधुनिक हिंदी साहित्य का निर्माण इन्ही भाषा – भाषियों के सद्प्रयासों से ही सम्भव है | इस महान कार्य के लिए वर्तमान पीढ़ी के साहित्यकार बहुत सकारात्मक भूमिका निभा रहे है क्योंकि आज के नवलेखनों का मानना है कि जन भाषा और साहित्य भाषा में फ़ासले न हो | जो हमारे संस्कार की भाषा हो वही हमारे साहित्य की भाषा भी हो |
हिंदी आरम्भ से लकर आज के आधुनिक साहित्य की भाषा रही है | यह संतों – फ़कीरों– मजदूरों– किसानों की भाषा रही है | यह नानक, कबीर, तुलसी , जायसी, सूर, मीरा की भाषा तो है ही दयानंद सरस्वती, राजाराम मोहन राय ,अरविंदघोष, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, सुभाष चंद्र बोस , ईश्वर चंद्र विद्धासागर, केशव चंद्र सेन से लेकर दक्षिण की राजलक्ष्मी राघवन, सर टी विजय राघवाचारी , शंकर, रामानुज, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य , मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य की भाषा भी रही है| ये सभी हिंदी भाषा के समर्थक थे | विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने भारतीय भाषाओं और राष्ट्र भाषा हिंदी के अंतर्संबंधों को आलोकित करते हुए कहा है “आधुनिक भारत की संस्कृति और साहित्य एक विकसित शदतल के समान है , जिसका एक–एक दल , एक– एक– प्रांतीय भाषा और उसकी साहित्य संस्कृति है| किसी एक के मिटा देने से उस कमल की शोभा नष्ट हो जाएगी | हम चाहते है कि भारत की सब प्रांतीय बोलियाँ , जिसमें सुंदर साहित्य की सृष्टि हुई है , अपने अपने घर में रानी बनकर रहें| प्रांत के जनगण की हार्दिक चिंता की प्रकाश भूमि स्वरूप कविता की भाषा होकर रहें और आधुनिक भाषाओं के हार के मध्य मणि हिंदी भारत – भारती होकर विराजती रहे |”
भारतीय हिंदी साहित्य किसी एक वर्ग का नहीं, किसी एक जाती का नहीं , किसी एक प्रदेश का नही, किसी एक समाज का नही, किसी एक पंथ – सम्प्रदाय का नही ,,,, सबका है| जो साहित्य जहाँ है और वह जिस स्थिति में है उससे आगे बढ़े | आरोप – प्रत्यारोप ,छीछलेदर, चीर– फ़ाड़ यह सब बहुत हो चुका | आपसदारी और परस्परताय ही हमारी पहली सोच और हमारा पहला चरण होना चाहिए क्योंकि यही तो वो मूल मंत्र है जो हम भारतीयों को मानसिक विरासत में मिली है, इसलिए आवश्यक है कि हम नए सिरे से सोचना प्रारम्भ करें क्योंकि हिंदी साहित्य संवर्द्धन के लिए प्राणपण से प्रयत्नशील होना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है | इसके लिए अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करने के लिए अनुवाद होने चाहिए औए लेखकों साहित्यकारों , कवियों के लिए सम्मान की और पुरुस्कारों की योजना होनी चाहिए | तभी हमारा हिंदी साहित्य गौरवपूर्ण हो सकेगा और हम सब उस पर गर्व कर सकेंगे |
#नसरीन अली ‘निधि’
परिचय : नसरीन अली लेखन में साहित्यिक उपनाम-निधि लिखती हैं। जन्मतिथि १० नवम्बर १९६९ और जन्म स्थान-कलकत्ता है। आपका वर्तमान निवास श्रीनगर (जम्मू और कश्मीर)स्थित हब्बा कदल है। निधि की शिक्षा बी.ए. ,डिप्लोमा रचनात्मक कला(पाक कला एवं कला कौशल) है। इनकी सम्प्रति देखें तो हिंदी कम्प्यूटर ऑपपरेटर एवं ध्वनि अभियंता (रेडियो कश्मीर-श्रीनगर) हैं। सामाजिक तौर पर सक्रियता से वादी’ज़ हिंदी शिक्षा समिति(श्रीनगर) बतौर अध्यक्ष संचालित करती हैं। साथ ही नसरीन क्लॉसेस(यूनिट,शासकीय पंजीकृत) भी चलाती हैं। लेखन आपका शौक है, इसलिए एक साहित्यिक पत्रिका की सहायक सम्पादक भी हैं। विशेष बात यह है कि,कश्मीर के अतिरिक्त भारत के विभिन्न अहिंदीतर प्रांतों में मातृभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत हैं। नसरीन अली को आकाशावाणी एवं दूरदर्शन श्रीनगर से सफल हिंदी कवियित्री,उदघोषक तथा कार्यक्रम संचालक का सम्मान प्राप्त है। साथ ही अन्य संस्थानों ने भी आपको पाक कला एवं कला कौशल के लिए सम्मानित किया है। लेखन में संत कवयित्री ललद्यत साहित्य सम्मान,अपराजिता सम्मान,हिंदी सेवी सम्मान और हिन्दी प्रतिभा सम्मान भी हासिल हुआ है। आपकी नजर में लेखन का उद्धेश्य-हिन्दी साहित्य के प्रति लगाव,उसके प्रचार-प्रसार,उन्नति,विकास के प्रति हार्दिक रुचि है।