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हम सब
अपनी सहूलियत के परदों में
इस कदर छिपे हुए हैं
कि
हर नई चुनौती
हमें मज़बूरी लगती है
हम अभ्यस्त हो गए हैं
बासी ज़िन्दगी जीने के लिए
जिसमें ताज़ा कुछ भी नहीं
ना ही साँस और ना ही उबाँस
हमें तकलीफ होती है
जब रोज़मर्रा की लीक से
कुछ अलग हो जाता है
और
हमें अपनी ही कूबत पर
शर्म आने लगती है
और
कई बार हैरानी भी होती है
कि
क्या हम सचमुच
इंसान कहलाने के लायक भी हैं
जिसका धर्म है परोपकार
जब कि
आज इंसान खुद की सहायता नहीं कर पा रहा है
#सलिल सरोज
परिचय
नई दिल्ली
शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011), जीजस एन्ड मेरीकॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)।
प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका”कोशिश” का संपादन एवं प्रकाशन, “मित्र-मधुर”पत्रिका में कविताओं का चुनाव।सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश।
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Thu Sep 13 , 2018
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