डिब्बा  बेस्वाद #दवाई का

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surekha agrawal
ना चाहते हुए भी वसु की आँखे नम थी।आँसुओं से आँखे भरी हुई पर वह ठान बैठी थी की आज वह उस अनमोल अश्क को गालों पर लुढ़कने ही नही देगी चाहे जो हो जाएँ। रक्तिम आँखे उलझा हुआ मन और बेकाबु धड़कने और बेइंतहा दर्द। आज दर्द हारेगा यह आँसु।
दर्द बढ़ता जा रहा था लगातार दवाईयाँ खाकर ऊबन हो गई थी।स्वाद नाम की चीज़ गायब थी मानो। और ढ़ेरों परहेज़ के बीच कैद जिंदगी उफ़्फ़्फ़।
कुछ समझ नही पा रही थी की आँखों में कैद आँसु बोला सुनो वसु  मुझे बहने दो
मुझे घुटन हो रही हैं।  और वसु की जिद्द की नही आज तुम आँखों में ही विलीन हो जाओ तो बेहतर।क्योंकि तुम बहते हो तो मै कमज़ोर साबित होती हूँ।और तुम आज़ाद।
आँसु अपने आप में बेबस वसु से कहता हैं तुम जानती हो घुटन क्या होती हैं फिर मुझे क्यों घुटने पर मज़बूर  कर रही हो सुनो बह जाने दो।आज़ाद हो जाने दो। हाँ तुम हल्का महसुस करोगी
दर्द से निज़ात मिलेगी तुम्हे।बस एक वादा।मै   विलीन हो जाऊँगा तुम्हारे गालों पर
। और सुनो तुम् मुझे तुरन्त आत्मसात कर लेना।मुझे गहरी रेखा मत बनने देना।मै नही चाहता की वह गहरी रेखा बन मै तुम्हारी कमज़ोरी बन सबके सामने नजऱ आऊँ।।और वसु अपने दर्द को हरा अपने अश्क को हर बंधन से मुक्त कर देती हैं।हमेशा की तरह
खुद हारकर किसी अपने को घुटन से  आज़ाद कर…..!!
खुद कैद हो जाती हैं उसी दर्द की परिधि में एक मौन हार के साथ…..!!
टेबल पर रखें गिलास को हाथ में थामे बढ़ चलती हैं वह अपने सिरहाने रखे बेस्वादे😏😏 दवाई के डिब्बे की ओर….!!
नाम सुरेखा अग्रवाल
शिक्षा…स्नातक
शहर…..लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
दो साझा संग्रह
कश्ती का चाँद
रूह की आवाज़
अंतरा से स्पंदन
अभिमत मासिक पत्रिका में कई
आलेख रचनाएँ,और लघुककथाएं प्रकाशित
नवप्रदेश, जंनसंदेश मैत्री ,नव एक्सप्रेस,अमर उजाला से रचनाएँ प्रकाशित।कई वेबसाइट्स पर आलेख ।
 लिखना मन को सुकूँ देता हैं और सृजन की शक्ति देता हैं।कलम समाज में एक बड़ा बदलाव का काम करती हैं।उद्देश्य हिंदी को  घर घर तक पहुँचाना।जय हिन्द,जय हिंद

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