जीवन में सामान्य सफलता के लिए समान्यत: बौद्धिक क्षमता को ही सर्वोतम योग्यता स्वीकार किया जाता है और भावनात्मक संतुलन के गुण की अनदेखी की जाती है, लेकिन आजकल के जटिलतम समाज में किसी भी क्षेत्र की सफलता के लिए अधिक सारगर्भित भूमिका भावनात्मक संतुलन की ही अधिक है| भावनात्मक संतुलन की यह उपलब्धि मातृभाषा में पढाई करने से सहज ही उपलब्ध हो जाती है| भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण में भी यही कहा गया है कि दूसरी भाषाओ में शिक्षा से बुद्धि का अपेक्षित विकास नहीं हो पाता, इसलिए यह तथ्य स्वीकार करते हुए कि मातृभाषा मात्र भाषा नहीं है बच्चों की पढाई-लिखाई को मातृभाषा से जोड़ा जाना चाहिए|
भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण के ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि मातृभाषा में पढाई-लिखाई करने वाले बच्चों के ज्ञानग्राह्य क्षमता अन्य भाषा के मुकाबले ४० फीसदी अधिक होती है, जबकि मातृभाषा में पढाई-लिखाई नहीं करने वाली बच्चों का भावनात्मक संतुलन ५० फीसदी ही विकसित हो पाता है यही वजह है कि हमारे समकालीन समाज में असंतुलित मानसिकता के साथ ही साथ लोगो में हिंसक प्रवति के खतरे भी बढते जा रहे है|
कहा जाता है कि भारत में ७८० मातृभाषाएँ अस्तित्व में है, जबकि मात्र ३५ मातृभाषाएँ ही ऐसी भाषाएँ है जिनमे शिक्षा दी जा रही है| मातृभाषा में शिक्षा का अभाव ही सबसे बड़ा है कि भारतीय बच्चों की बौद्धिक क्षमता तो बढ़ी है लेकिन समइदारी के विकास का स्तर न्यून ही बना हुआ है| लन्दन से प्रकाशित चाइल्ड डेवलपमेंट नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बच्चों को मातृभाषा सहित एक से अधिक भाषा सिखाई जाना चाहिए ताकि वे समाज में मेलजोल बढ़ाने में सक्षम हो सकें | अध्ययन में यह भी कहा गया है कि बच्चों को बड़ी मात्रा में आटीज्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर अर्थात आत्म विमोह विकार होता है, जिसकी वजह से ये बच्चे अपनी सामाजिकता बढ़ाने में कमजोर होते है| इस विकार के शिकार बच्चे किसी से भी आसानी से बात नहीं कर पाते है उनका इस आन्तरिक दुविधा के कारण उनके जीवन में सुविधाएँ घटती रहती है और इच्छाएँ बदलती रहती है| ऐसे की पढाई लिखाई व मातृभाषा में दिया जाने वाला शिक्षण अनुपम उपहार साबित हो सकता है|
देश दुनिया में मातृभाषाओं सहित भाषाओं की स्थिति अत्यंत ही चिंताजनक है, इसवक्त दुनिया में छ: हजार भाषाएँ बोली जाती है, जबकि एक खास भाषाई अनुसंधान के मुताबिक अगले चालीस बरस में चार हजार भाषाओं पर उनके ख़त्म होने का खतरा मंडरा रहा है| भारत में तो यह खतरा निरंतर बढ़ता जा रहा है| भारत में तो यह खतरा निरंतर बढता ही जा रहा हैं | गत पचास बरस में भारत की तक़रीबन बीस फीसदी भाषाएँ समाप्त हो चुकी होगी | वर्ष १९६१ की जनगणना के बाद भारत में १६५२ मातृभाषाओँ का पता चला था, इसके बाद ऐसा कोई सर्वज्ञात सर्वमान्य सर्वेक्षण उपलब्ध ही नहीं हुआ कि जिसमें इस बारे में कोइ अधिकृत आंकड़ा रेखांकित किया जा सकें |
सरकारी नियमावली के अनुसार किसी भी भाषा को सूची में शामिल करने के क्षमता सिर्फ तब ही बन सकती है, जबकि उसके बोलने वालो की संख्या कम से कम दस हजार हो, उक्त नियमावली की शर्तो के मुताबिक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जो कुल बाईस भाषाएँ शामिल है वो इस प्रकार सूचीबद्ध की जा सकती है, बंगाली, हिन्दी , मराठी, नेपाली, गुजराती, संस्कृत, तमिल, उर्दू, आसमी, डोगरी, कन्नड़, बोडो, मणिपुरी, ओड़िसा, मैथली, संथाली, तेलगु, पंजाबी, सिन्धी, मलयालम, कोकणी और कश्मीरी, जबकि भोजपुरी के लिए आन्दोलन जारी है, सिर्फ भोजपुरी ही नहीं, राजस्थानी आदि सहित तक़रीबन एक दर्जन भाषाएँ बोलने वाले अपनी-अपनी बोली-भाषा के लिए संवेधानिक दर्जे की मांग कर रहे है| भारत में भाषा का मामला हमेंशा ही संवेदनशील मुद्दा रहा है, तमिलनाडु में हिन्दी लागू करने का मामला द्रविड आन्दोलन का प्रमुख कारण रहा है| वर्ष १९५२ में भाषा के आधार पर ही आंध्र को तमिलनाडु से अलग करने का आन्दोलन हुआ था | बॉम्बे प्रेसीडेन्सी का विभाजन भी गुजराती-मराठी के आधार पर ही किया गया था, फिर भाषा के साथ ही साथ रोजी रोटी का सवाल भी बड़ा सवाल बनता गया|
भाषा का मानव स्वभाव और मानव सभ्यता से गहरा सम्बन्ध है भाषा के बगैर मानव अस्तित्व का कोइ औचित्य ही नहीं है| भाषा ही आदमी को आदमी बनती है और आदमी होने के तमीज सिखाती है, भाषा ही आदमी की पहचान है, भाषा नहीं तो आदमी नहीं, भाषा नहीं तो जीवन नहीं, भाषा नहीं, तो सभ्यता, संस्कृति, भविष्य कुछ भी नहीं| भाषा ही आदमी को सामजिक बनाती, भाषा से जीवन शैलियों और परम्पराएं भिन्न-भिन्न होती है| इसलिए न जाने कब से यह लोकोक्ति चली आ रहे है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले, नो कोस पर बानी|’
भाषा का परिवर्तनशील होना प्राक्रतिक और बेशक स्वाभाविक है, भारत एक बहुभाषी देश है और वह बहुभाषी होते हुए भी सहज तथा सहिष्णु है| किन्तु मातृभाषा को लेकर कुछ अधिक ही संवेदनशील है, जो कि उसे होना भी चाहिये, किन्तु वैज्ञानिक वैचारिकता के अभाव में वह समस्त संवेदनशीलता मात्र भाषा के लिए किया गया तमाशा बनते देर नहीं लगती है और उसका गंभीर नुकसान पीढ़ियों तक उठाना पड़ता है | अंग्रेज हमें यह समझाने में हद दर्जे तक सफल कहे जा सकते है कि भारत में विभिन्न भाषाओँ का होना सभ्यता के विकास में एक बहुत बड़ी बाधा है, वे हमें यह समझाने में भी हद दर्जे तक सफल रहे कि हमारी विविध मातृभाषाएँ मात्र ग्रामीणता भरी सोच वाली भाषाएँ है, जिनका प्रयोग हमें गंवार साबित करता है, अंग्रेजो की इसी सोच ने हमारी सोच बदल दी और हम अपनी ही भाषाओं से हाथ धो बैठे |
हमने अपनी सोच में अंग्रेजो की सोच को स्वीकारकर लेने में अंग्रेजों से भी कही अधिक उदारता का परिचय दिया और अपना तथा अपने बच्चों का भविष्य अंधकारपूर्ण कर लिया | हमने खुली आँखों से स्वीकार कर लिया कि अंग्रेजों द्वारा परोसी गई अंग्रेजी हमें श्रेष्टता का प्रमाण देती है और हमारी मातृभाषाएँ हमें तीसरे दर्जे में धकेल देने के लिए जिम्मेदार है| हमने अपने बच्चों को खुद की ही तरह अंग्रेजी का अनचाहा गुलाम बना दिया, मातृभाषाओं में पारंगत प्रतिभाएं तीन महीने में अंग्रेजी सीख लेने के लिए व्याकुल हो गई, हिन्दी के प्रोफ़ेसर अपने होनहार बच्चों को अंग्रेजी का रट्टा लगवाने लगे, हालात ये हुए कि भाषाई खोखलेपन ने हमें कही का नहीं छोड़ा, विश्वभाषा की जुमलेबाजी ने हमसे हमारी मातृभाषाएँ तो छीन हैं वरन हमें संवेदनहीन भी बना दिया | हम भावनात्मक संतुलन की सामाजिकता से वंचित होते चले गये, हम न हिन्दी के रहे, न अंग्रेजी के और अपनी मातृभाषा भूलते गये सो मुफ्त |
केंद्र सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रहमणयम की उपस्थिति में जारी की गई ‘असर’ (एक गैर सरकारी संगठन) भी ताजा वार्षिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि १४ से 18 वर्ष की उम्र के आठवीं पास पच्चीस फीसदी बच्चे अपनी मातृभाषा में लिखी किताब नहीं पढ पाते है इसलिए सामाजिक सन्दर्भ में संवेदनशीलता के साथ बेहतर समझा जा सकता कि मामला मात्रभाषा का नहीं मातृभाषा का है| भारतीय होने की पहली शर्त क्या मातृभाषा नहीं होना चाहिए? वैचारिक मौलिकता को मातृभाषा से अलग कैसे किया जा सकता है?
#राजकुमार कुम्भज
सम्पर्क: इंदौर
१२ फरवरी १९४७ को मध्यप्रदेश में ही जन्में राजकुमार कुम्भज सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा चौथे सप्तक में शामिल कवियों में रहे है