घनघोर तिमिर चहुँ ओर या हो फिर मचा हाहाकार
कर्मो का फल दुखदायी या फिर ग्रहों का अत्याचार
प्रतिकूल हो जाता अनुकूल लेकर बस आपका नाम
आदि पुरुष, आदीश जिन आपको बारम्बार प्रणाम॥१॥
आता जाता रहता सुख का पल और दुःख का कोड़ा
दीन-दुखी मन से, कर्मो ने जिसको कही का न छोड़ा
हर पतित को करते पावन, मन हो जाता जैसे चन्दन
जग में पूजित ‘श्री अजित’ आपको कोटि-कोटि वंदन॥२॥
सूर्य रश्मियाँ भी कर न सकें जिस तिमिर में उजियारा
ज्वालामुखी का लावा तुच्छ ऐसा जलने वाला दुखियारा
शरण में आकर आपकी हर पीड़ा से मुक्त हो तर जाता
पूजूँ ‘श्री संभव’ चरण कमल फिर क्या असंभव रह जाता॥३॥
सौ सौ पुत्र जननेवाली माता जहां कर्मवश दुखी रहा करती
माया की नगरी में जहां प्रजा हमेशा प्रपंचो में फसी रहती
ऐसे पंकोदधि में दुखिजनो को तेरे पद पंकज का ही सहारा
‘श्री अभिनन्दन’ करो कृपा, हम अकिंचन दे दो हमें किनारा॥४॥
न कर सके जिसको शीतल चन्द्रमा भी सारी शक्ति लगा के
भस्म हो रहा जो क्रोधासाक्त, अग्नि बुझा न सके सिन्धु भी
ऐसा कोई मूढ़ कुमति भी हो जाता पूज्य, लेकर आपका नाम
हे मुक्ति के प्रदाता ‘श्री सुमतिनाथ’ प्रभु करो जग का कल्याण॥५॥
कर्मों का लेखा-जोखा इस भवसागर में किसको नहीं सताता
जानकर भी पंक है जग, इस दलदल में हर कोई फस जाता
फिर भी शक्तिहीन लेकर आपका नाम भवसागर से तर जाता
चरण सरोज ‘श्री पदमप्रभु’ के ध्याकर पतित भी मोक्ष पा जाता॥६॥
चंचल चित्त अशांत भटक रहा बेपथ जिसको नहीं श्रद्धान
शूलो से भेदित हृदय रहा तड़प अब करूँ प्रभु का गुणगान
विषयों में व्याकुल भव भव में भटका सहकर घोर उपसर्ग
निज में होकर लीन जपूँ ‘श्री सुपार्श्व’ सो पाऊं मुक्तिपथ॥७॥
रवि रश्मियाँ आभा में सुशोभित चरण जजूँ हे दीनदयाल
चन्द्र चांदनी चरणों में विलोकित प्रणमुं महासेन के लाल
ऐसे मन मोहने ‘चन्द्र प्रभु’ दुःख-तिमिर का नाश करते हैं
सेवक तीर्थंकर वंदन कर आत्मउद्धार के मार्ग पर बढ़ते हैं॥८॥
सिर सुरक्षित रहता है क्रोधासक्त गज के पग में आने पर
तन-मन स्थिर रहता है प्राणघातक तूफान में फस जाने पर
कुसुम सा प्रफुल्लित हो जाता है मन आपका दर्शन पाने पर
‘श्री पुष्पदंत’ प्रभु जी की कृपा हो जाती है हृदय से ध्याने पर॥९॥
विकल को सरल और विकट को आसान करने वाले प्रभु प्यारे
व्याकुल को शांत और गरल को अमृत करने वाले नाथ निराले
पूजा करू मन वच काय और यश गाऊं कोटि कोटि शीश नवायें
‘श्री शीतलनाथ’ प्रभु शीतल करें, भव ताप हरें जग सुख प्रदाय॥१०॥
कलंकित तन उज्जवल हो जाता, श्रापित मरुस्थल देवस्थल
आपकी स्तुति से हो रही दस दिशाए गुंजायमान दयानिधान
सर्वज्ञ-सर्वदर्शी माघ कृष्णा अमावस्या को प्रकटा केवलज्ञान
अर्हत् प्रभु, जग कर रहा नमन ‘श्री श्रेयांसनाथ’ महिमानिधान॥११॥
पुण्य-क्षीण होते लगता है अग्नि दहक रही हो भस्म करने को
इन्द्रिय-विषयों की पीड़ा जैसे मृत्यु समीप हो आलिंगन करने को
मोक्षमार्ग के व्रती कर निजध्यान निर्वाण को तत्पर हो जाते हैं
‘श्री वासुपूज्य’ प्रभु की कृपा से सेवक सिद्धपद पा जाते हैं॥१२॥
चित्त राग-द्वेष में उलझा व्याकुल हृदय में घोर घमासान हो
हेय तत्वों का होता श्रद्धान ऐसा जब लगे कोई न समाधान हो
कर्म कंटकों में उदविग्न भटक रही आत्मा कितने ही युगों से
पूजूं ‘श्री विमल’ चरण, अब निवास शाश्वत सिद्धों का धाम हो॥१३॥
इन्द्रियों से प्रेरित होकर क्षणभंगुर सुख के जाले में फस जाता है
हेय, ज्ञेय और उपादेय भूलकर जग बंधन में प्राणी धस जाता है
कर्म ताप के नाश हेतु मैं, ‘अनंतनाथ’ प्रभु को श्रद्धा सहित ध्याऊं
नाथ आपके चरणों की वंदनाकर सिद्धों के आठ महागुण पा जाऊं॥१४॥
इस जीवन में उपादेय रमण कर, स्वयं अपना कल्याण करूँ
धर्म साधना में तन्मय हो, प्रभु की सदा जय-जयकार करूँ
हो निष्काम भावना सुन्दर, लेश न पग कुमार्ग पर जाने पाऊँ
मैं भी होऊं प्राप्त निर्वाण को ‘धर्मनाथ’ प्रभु को ह्रदय में बसाऊँ॥१५॥
तप धारण कर निज की सिद्धि हेतु तुम्हारे गुण गाता हूँ
निजातम सुख पाने को विशुद्ध भावों की बगिया सजाता हूँ
कर्मों से क्षुब्द्ध कलंकित दिशाहीन नमूँ धर मुक्ति की आस
‘श्री शांतिप्रभु’ काटो कर्म पदकमल में विनती कर रहा दास॥१६॥
आत्म शत्रु स्वयं मैं पर्याय की माया में अब तक लीन रहा
निज में आत्मावलोकन करने अब शरण तुम्हरी आया हूँ
चैतन्य करो केवल्य वाटिका मेरी देकर अक्षयपद का दान
नतमस्तक करूँ बार बार वंदना, नमन ‘कुंथुनाथ’ भगवान्॥१७॥
‘अरहनाथ’ निर्मल करन, दोष मिट जायें जिनवर सुखकारी
मन वच तन शुद्धिकरण, विघ्न सब हट जायें उत्सव भारी
जग बैरी भयो जो, बैर भाव भुला नरनार ज्ञानामृत को पायें
पूजूँ प्रभु भाव सो, मंगलकारी अविनासी पद प्राप्त हो जायें॥१८॥
दूषित मन को पावन करते, मन-वच-काया की चंचलता हरते
रोष मिटा जन जन को हर्षित करते, कषायों की छलना हरते
तीनलोक पुलकित हो जाते करके प्रभुकी महिमा का यशोगान
हे ‘मल्लिनाथ’ भगवान आपके चरणाम्बुज में बारम्बार प्रणाम॥१९॥
रागद्वेष में रमे हम अज्ञानी फिर भी न जाने क्यों अभिमानी
मोहजाल में फसे तुच्छ जीव, है यही सबकी दुख भरी कहानी
दो सद्बुद्धि हमें, लेते हृदय से आपका नाम जिननाथ महान
‘मुनि सुब्रतनाथ’ प्रभु विनती आपसे दीजे सिद्ध पद का दान॥२०॥
क्षणभंगुर विषयों के व्यापार से कर्म आस्रव दुखकारी हो जाते
भूला क्यों है कोई न बचता कर्मोदय भवसागर में खूब सताते
निज में सुख पाने को प्रेम भाव से अरिहंत आपको ध्याता हूँ
छवि उर में आपकी बसाकर ‘नमिनाथ’ प्रभु धन्य मैं हो जाता हूँ॥२१॥
सिद्ध होकर गिरनार से तीर्थ मुक्ति का भक्तों को देने वाले
परम पुनीत तप परमाणुओं से जग को प्रकाशित करने वाले
अहो भाग्य हमारा आया जो आप के चरणों में शीश झुकायें
दो शक्ति हमें ‘नेमि’ प्रभु हम भी तीर्थपथ पर आगे बढ जायेँ॥२२॥
नाम आपका लेने पर हर मुश्किल से छुटकारा हो जाता
जो भक्ति में लीन रहे सो, स्वयं ही भाग्यविधाता हो जाता
छोटे पड़े सुख सब संसार के, नाम प्रभु का ही सबसे प्यारा
जय श्री चिंतामणि ‘पारसनाथ’, कर देते जीवन में उजयारा॥२३॥
भेद न किया प्राणिमात्र में जियो और जीने दो का उपदेश दिया
वीतरागी भगवान जिन्होंने ने आत्मबल से कर्मों को जीत लिया
मार्ग दिखाकर हम सब को मुक्ति का स्वयं भवसागर तीर्थ किया
बन्दों ‘वर्धमान’ अतिवीर, जो ध्याये सो उसका कल्याण किया॥२४॥
पूजूँ सच्चे भाव से चौबीसी स्त्रोत सुखदाय
करो कल्याण प्रभु ‘राहत’ आराधना में चित लगाये
डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’