शब्द शब्द हम गढ़ चलते हैं।
शब्द वही पर अर्थ बदलते हैं।
लिखकर शब्दों से शब्दों की भाषा,
अक्सर हम शब्दों से छल करते हैं ।
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उस दर्द से न होना खुश तू ।
उस दर्द की भी थी ज़ुस्तज़ू ।
सीखा था मुस्कुराना उसने भी ,
ग़मों की न थी उसे भी आरजू ।
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उसके दर्द से न होना खुश तू ।
उसे दर्द की न थी ज़ुस्तज़ू ।
सीखा था मुस्कुराना उसने भी ,
ग़मों की न थी उसे भी आरजू ।
#विवेक दुबे
परिचय : दवा व्यवसाय के साथ ही विवेक दुबे अच्छा लेखन भी करने में सक्रिय हैं। स्नातकोत्तर और आयुर्वेद रत्न होकर आप रायसेन(मध्यप्रदेश) में रहते हैं। आपको लेखनी की बदौलत २०१२ में ‘युवा सृजन धर्मिता अलंकरण’ प्राप्त हुआ है। निरन्तर रचनाओं का प्रकाशन जारी है। लेखन आपकी विरासत है,क्योंकि पिता बद्री प्रसाद दुबे कवि हैं। उनसे प्रेरणा पाकर कलम थामी जो काम के साथ शौक के रुप में चल रही है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं।