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हो गए इतने मशगूल कि फूल गए हो तुम,
अंधे माँ-बाप का दर्द भूल गए हो तुम।
पत्नी से पूछते हो-शाम को कहाँ चलना है,
माँ-बाप के दो समय के खाने का वक्त
भूल गए हो तुम…।
हो गए इतने मशगूल…॥
बांध आए जिन्हें तुम वृद्धाश्रम के खूंटे से,
एक खिलौने की खातिर जिनसे तुम रुठे थे।
किया किस कदर तुम्हारी ख्वाहिशों को पूरा,
रह गया उनका खुद का ख्वाब अधूरा।
भूल गए हो तुम…।
हो गए इतने मशगूल…॥
पाल-पोसकर बड़ा किया जिन हाथों ने,
किया परेशान तुम्हारी बेबाक बातों ने।
हुआ बंटवारा जिस दिन जायदाद का,
झूल गए हो तुम अपने बूढ़े होते माँ-बाप को।
भूल गए हो तुम…।
हो गए इतने मशगूल…॥
जिस दिन उठी अर्थी घर से माँ-बाप की,
दे न पाए कांधा पलभर भी आत्मा हताश थी।
सूना-सूना था घर,कमी खल रही थी माँ-बाप की,
बगिया उजड़ गई हो जैसे गुलाब की।
भूल गए हो तुम…।
हो गए इतने मशगूल…॥
#अजय जयहरि
परिचय : अजय जयहरि का निवास कोटा स्थित रामगंज मंडी में है। पेशे से शिक्षक श्री जयहरि की जन्मतिथि १८ अगस्त १९८५ है। स्नात्कोत्तर तक शिक्षा हासिल की है। विधा-कविता,नाटक है,साथ ही मंच पर काव्य पाठ भी करते हैं। आपकी रचनाओं में ओज,हास्य रस और शैली छायावादी की झलक है। कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन होता रहता है।
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