हिन्दी को बोलियों और कटु बोलों से बाँटने की साजिश

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इधर सोशल मीडिया पर  ‘कौए-कोयल’ के नाम पर जारी नए पुराने हिसाब चुकाने का खेल देखकर लगता है,जैसे इस बार शीत के बाद ‘बसंत’ नहीं, ‘पतझड़’ आ गया हो। पिछले दिनों बेशक कुछ अलग कारणों से ही सही, साहित्य जगत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए,लेकिन वे विवादों में उलझकर अपने उद्देश्य से भटक गए। नरेन्द्र कोहली ने कवियों की योग्यता पर सवाल उठाए। हालांकि,कोहली जी ने स्वयं को भी ‘कविता के नासमझों’ की सूची में रखा है। दिल्ली सरकार की हिन्दी अकादमी की उपाध्यक्षा पुष्या मैत्रयी ने ‘अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों’ की गुणवत्ता पर टिप्पणी की,तो व्यंग्य यात्रा के सम्पादक प्रेम जन्मेजय ने दैनिक पत्र में प्रकाशित अपने व्यंग्य लेख में शरद ऋ़तु में भारत आने वाले प्रवासी पक्षियों की तुलना प्रवासी हिन्दी साहित्यकारों से की।जाहिर है हर बात के अनेक पहलू होते हैं,इस बात से शायद ही किसी गंभीर रचनाकार की असहमति होगी कि सोशल मीडिया पर इधर हिन्दी साहित्य जगत में कवियों की बाढ़-सी आ गई है। अनेक मित्रों ने कविता की ‘फैक्ट्री’ लगाते हुए एक ही दिन में कई-कई कविताओं का ‘उत्पादन’ करना आरम्भ कर दिया है। छन्द, लय,तुकबंदी तो दूर ऐसी अधिकांश कविताओं में कोई संदेश नहीं है और न ही शब्द सौंदर्य है। केवल सपाट बयानी है,अतः ऐसी कविता के जनक ‘महाकवियों’ को गंभीर होने की सलाह देना कोई अपराध नहीं है,लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आज अच्छी कविता हो ही नहीं रही है। यदि हम देखें, तो सोशल मीडिया से लघु पत्रिकाओं तक अनेक बहुत अच्छे कवि, ग़ज़लकार,गीतकार,दोहाकार भी मौजूद हैं। उन सभी का अभिनन्दन, लेकिन हम अभिनन्दनीय कैसे बनें,इस पर विचार की अपेक्षा भी है।
यह सभी ‘अनुभवी’ जानते हैं कि, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से प्राप्त अनुदान को किस प्रकार ठिकाने लगाया जाता है। देशभर में आयोजित होने वाले इन सेमिनारों में लगभग वही चेहरे,यानि तेरे कालेज में ‘मैं’ और मेरे कालेज में ‘तू’। एक ही दिन में एक से अधिक  ‘अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों’ में सहभागिता के उदाहरण भी सहज मिल जाएंगे। उद्घाटन सत्र अथवा भोजन के बाद के सत्रों में सभागार के श्रोताओं से अधिक मंच पर वक्ता होते हैं। यह विशेष उल्लेखनीय है कि श्रोताओं में अनेक अगले सत्रों के वक्ता भी शामिल होते हैं। महत्वपूर्ण प्रश्न यह कि,आखिर किसी सेमिनार को आप किस आधार पर  ‘राष्ट्रीय’ अथवा ‘अन्तर्राष्ट्रीय’ घोषित करते हैं? वातानुकुलित क्लास अथवा वायुयान का किराया तथा अन्य सुविधाएं आदि प्राप्त करने वाले वक्ताओं को आमंत्रित करने का आधार क्या है?  यही न कि,उन्होंने मुझे बुलाया था इसलिए यह मेरा कर्तव्य है कि मैं उस ऋण को चुकाऊँ या ‘तूने मेरी पीठ खुजलाई, मैं तरी पीठ।’
ऐसे सेमिनारों में कितने शोध-पत्र प्राप्त हुए,इसे उपलब्धि माना जाता है लेकिन ‘शोध-पत्र’ या तो पढ़े ही नहीं जाते या फिर समय के अभाव में कुछ पंक्तियां पढ़कर उसे पढ़ा हुआ मान लिया जाता है। मंच पर विराजित अध्यक्ष से मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि तक विषय पर बोले या जो मन में आए,यह उनकी ‘तैयारी’ पर निर्भर करता है। वैसे शोध-पत्र क्या है,इसे भी पारिभाषित किया जाना चाहिए। क्या किसी आलेख को केवल पाद टिप्पणी और कुछ यहां-वहां से संदर्भों के आधार पर ‘शोध-पत्र’ कहा जा सकता है? अब प्रश्न यह भी है कि,जब हर तरफ सेमिनारों की धूम मची हो तो इतनी कोयलें कहां से आएंगी जो हर सेमिनार को गुलशन बना सकें। जाहिर है जब ‘मांग और पूर्ति’ का नियम काम करेगा तो अपने संबंधों अथवा गणेश परिक्रमा के नाम पर कौए भी अपना स्थान बनाने में सफल हो जाते हैं। ये कौए ‘पराए आसमान’ के कम और अपने ‘घोसलों’ के ज्यादा हैं।
पराए  आसमान में भी दो प्रकार के कौए बनाम कोयलें हैं। एक वे जो थे तो हमारे,लेकिन कई पीढ़ियों से वहीं बस गए हैं। सदियों से इस धरती, इस हवा, इस फिज़ा से दूर रहते हुए भी यदि वे अपने पूर्वजों की धरती के ‘स्वर’ (हिन्दी) नहीं भूले तो वे निश्चित रूप में वन्दनीय हैं।  ईमानदारी से कहें तो,जो विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए भी गा रहे हैं वे संरक्षण प्राप्त ‘कोयल’ से अधिक सम्मानित होने चाहिए। 
दूसरे प्रकार के कौए बनाम कोयल वे हैं जो हमारे थे और अब भी हमारे ही हैं। यानी कुछ वर्षों से आर्थिक कारणों से पराए आसमान में उड़ान भरने वाले अब भी लगातार यहां आते-जाते रहते हैं। उनके अनेक परिजन यहां हो सकते हैं। उनसे सम्पर्क और संवाद के कारण उन्हें निज भाषा और संस्कृति का अभ्यास बना हुआ है। ये कौए बनाम कोयल अगर कुछ रचनात्मक लेखन कर रहे हैं तो उनका भी अभिनन्दन होना चाहिए,परंतु प्रथम और द्वितीय वर्गों के अंतर को समझना होगा। अगर कौए कई प्रकार के होते हैं, तो कोयलों में भी अनेक आकार और प्रकार हैं। सोशल मीडिया पर प्रेम जन्मेजय जी के ‘कौए बनाम कोयल’ वाले व्यंग्य पर मारिशस के हिन्दी सेवी विद्वान रामदेव धुरन्धर की प्रतिक्रिया और उस पर अनेक अन्य मित्रों की प्रति-प्रतिक्रियाएं और विभाजन देख कष्ट हुआ कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? स्वयं भारत में,हिन्दी भाषी क्षेत्रों में साहित्य के प्रति रुचि लगातर रसातल में जा रही है।इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बाद सोशल मीडिया के आगमन के बाद आज स्थिति यह है कि अधिकांश घरों में टेबल पर रखे समाचार पत्र-पत्रिकाएं खुलते भी नहीं हैं कि अगली आ जाती है। हम रचनाकार भी तो अपने छपे को खुद पढ़कर अथवा आपस में एक-दूसरे को जबरदस्ती पढ़वाकर स्वयं को कोयल घोषित कर फूले नहीं समाते हैं।
पिछले दिनों एक जाने-माने प्रतिष्ठान में जाना हुआ। वह प्रतिष्ठान अनेक पत्रिकाओं की खरीद भी करता है। वहां ढेरों पुरानी अनखुली(पैक्ड) पत्रिकाओं को खोलकर फाड़ते देखा तो कारण जानना चाहा। उन्होंने बामुश्किल बताया कि,ये विभिन्न पुस्तकालयों में भेजी जानी थी पर.. पर.. पर.. पर ……! इसलिए अब इन्हें फाड़कर नष्ट किया जा रहा है। ‘इन्हें बिना फाड़े भी तो रद्दी में बेचा जा सकता है। ताकि,कम-से-कम यह ‘श्रेष्ठ’ साहित्य लिफाफे बनाने के काम तो आ सके’ के जवाब में ‘उन्होंने’ जो उत्तर दिया वह स्वयं को ‘श्रेष्ठ कोयल’ समझने वालों की आँखें  खोल सकता है,परंतु उन्होंने स्वयं को अपने ‘चमचों- चेलों` से बांध रखा हैl वे  केवल उन्हीं की जय-जयकार सुनते हैं,और चेले भी मुंह पर जय-जयकार, पीठ पीछे…….खैर छोड़ो, जाने दो।
‘अपुन’ नामधारी एक सज्जन(?) जो सरकारी नौकर हैं, के हर महीने कई कई संग्रह प्रकाशित होंते हैं। ये तो राम ही जानें कि, कब अपने पद की जिम्मेवारी निभाते हैं और कब कविताएं लिखते हैं क्योंकि दिनभर सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता देखी- अनुभव की जा सकती है। ये एक उदाहरण भर है, ऐसे अनेक ‘प्रतिभा संपन्न’ अपुन हैं। मेरा सभी मित्रों और मित्रों द्वारा कब्जाई गई संस्थाओं से आग्रह है कि,वे साहित्य के साथ-साथ सेमिनारों के प्रभावों और उनके स्वरूप की गुणवत्ता पर गंभीर विमर्श आरंभ करें। विशेष आग्रह यह है कि,जब हम अपने परिवेश में रहते हुए भी साहित्य को लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ विशेष नहीं कर पा रहे हैं,ऐसे में अगर कोई कई पीढ़ियों से भारत से दूर रहकर भी कुछ ‘भारतीय’ करता है तो हमें उसका उत्साहवर्धन करना चाहिए। साहित्य में ‘अमरसिंहों’ की भूमिका तभी कम हो सकती है जब ‘मुलायम’ कम होंl कब तक अपने और अपनों को प्रोजेक्ट करने का खेल चलता रहेगा,यानी साहित्य के नाम पर सम्मान,पुरस्कारों से सेमिनारों की राजनीति रहेगी? यह सर्व विदित है कि,ऐसे कौए बनाम कोयले ही अपने आकाओं के इशारे पर ‘पुरस्कार वापसी’ करते हैं। फसल अलग हो सकती है,पर नस्ल वही है। कल भी परिणाम वही होंगे।
अपने देश में हिन्दी को बचाना और बढ़ाना है तो उसे बोलियों के नाम पर तोड़ने की कोशिशों से भी अधिक खतरनाक ‘कोयल बनाम जैसे कौए ‘कटु बोलों’ से बचाना होगा। तभी हम यह ध्यान दे पाएंगें कि, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं की शोध पत्रिकाओं को नहीं,बल्कि अंग्रेजी की शोध पत्रिकाओं को ही मान्यता प्रदान की है। ये संकेत है कि, बोलियों और बोलों के नाम पर बांटकर भविष्य की क्या योजना अंग्रेजी दा अधिकारियों के मन-मस्तिष्क में है। आशा है कि,स्वयं-भू कोयलें मुझ ‘कर्कश कौए’ की आवाज अनुसनी नहीं करेंगी।
                                                               #डॉ. विनोद बब्बर 

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।