वर्तमान का विज्ञान पर केन्द्रित युग,इलेक्ट्रानिक मीडिया,दूरदर्शन व अन्य चैनलों के अकल्पनीय विज्ञान धारावाहिक, कामिक्सों पर सही दृष्टिकोण बाल साहित्यकार ही बालकों के समक्ष अपने सृजन के माध्यम से रख सकता है। आज का बालक सीधा,सरल अथवा जो कुछ कहो,सो मानने वाला नहीं हैं। वह प्रमाण चाहता है। उसने अपने शिक्षक से सुना है पृथ्वी घूमती है लेकिन वह क्यों नहीं ?
इस प्रश्न को बालकथा द्वारा सरलता से समझाया जा सकता है। उससे कहें-चन्दामामा है,उस पर एक बुढ़िया सूत कात रही है तो वह तुरन्त तर्क करता है कि राकेश शर्मा को वहां क्यों नहीं मिली। क्यों मूर्ख बनाते हो ?,आदि अनेक ऐसे अनसुलझे प्रश्न बालकों के मस्तिष्क में उनके समीपस्थ वातावरण,घटनाओं को देखकर उठते रहते हैं,जिनके समाधान के लिए विज्ञान की आवश्यकता बाल साहित्य में अनुभव होती है।
यह प्रश्न ऐसे होते हैं,जिनका समाधान कई बार शिक्षकों,अभिभावकों के पास भी नहीं होता है अथवा टाल-मटोलकर जाते हैं। कुछ तो इस भांति डांट-फटकार देते हैं,कि बालक उनसें कुछ पूछने का साहस ही नहीं जुटा पाता। फिर आज अफवाहों का युग भी है,तो अनुत्तरित प्रश्नों के मकड़जाल से बाहर लाने के लिए विज्ञान की आवश्यकता है। कहीं सागर का पानी मीठा हो रहा है,मूर्तियां दूध पी रही हैं मूर्ति से आंसू टपक रहे हैं…आदि-आदि घटनाओं,भ्रान्तियों से बाहर निकालने का दायित्व सर्वोत्तम रूप से बाल साहित्यकार निर्वहन कर सकता है। यदि तर्कसंगत वैज्ञानिक सोच व ज्ञान विकसित हो जाएगा,सामान्य वस्तुओं की वैज्ञानिक संरचना जानेंगे तो भ्रान्तियों पर अचानक विश्वास नहीं करेंगे। उनको तर्क की कसौटी पर कसना चाहेगें। विज्ञान का आधार प्रयोग कर सीखना है और तर्क की कसौटी पर अच्छी तरह कसना है। इसलिए बच्चा-बच्चा बिना सोंचे-समझे विश्वास करना छोड़ देगा। उसमें विवेक जगेगा। वह अन्धविश्वास, पारम्परिक कुप्रथाओं,कुरीतियों,रिवाजों से हट जाएगा। यह समाज व देश को अतिरिक्त लाभ मिलेगा।
बच्चा जब आंख खोलकर इस जगत को देखता है,घिसटता है,उठकर खड़ा होता है और चलना सीखता है तो यहीं से किशोरावस्था तक अनेक जिज्ञासाएं जागृत हो जाती हैं। वह अपने आस-पास के पतंग,तकिया,कमरे,कमरे की दीवारें, दरवाजे,खिड़कियां,कैलेण्डर,पानी,
बालक यदि अपनी जिज्ञाओं का समाधान पाकर संतुष्ट हो जाता है तो उसके अन्दर वैज्ञानिक सोंच विकसित होगी। कुछ तो कम आयु में ही अपने को ‘मैं वैज्ञानिक बनूंगा’ मानकर किसी न किसी वैज्ञानिक को अपना आदर्श मानकर चलेंगे। संसार में होने वाले आविष्कार जनजीवन पर प्रभाव तथा अपनी भूमिका का ज्ञान कर उसके निर्वहन को तत्पर होंगे।
बाल साहित्य में विज्ञान की आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ यह देखना होगा कि,उसका लाभ महानगर से लेकर छोटे-से गांव तक के बालक को मिले। उसमें सभी वर्गों,क्षेत्रों, परिस्थितियों का ध्यान रखा गया है।हैरी पोटर,कम्प्यूटर अभी कुछ बच्चों की आवश्यकता हो सकता है,पर सभी की नहीं। फिर जब अधिकांश बच्चे आज भी ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े हों,उनका शहरों से सम्पर्क सीमित हो,उनके व अभिभावकों की जेब महंगी पुस्तकें-पत्रिकाएं खरीदने की अनुमति न देती हो,तो आवश्यक हो जाता है कि वैज्ञानिक दृष्टि से युक्त बाल साहित्य सृजन के साथ-साथ अधिकाधिक बच्चों तक पहुंचे। विज्ञान सम्मत बाल साहित्य कितना ही प्रभावी क्यों न हो,यदि छपकर पुस्तकालयों, अल्मारियों,बड़े शहरों तक सीमित रह जाता है,तो ऐसे सृजन का कोई औचित्य नहीं है ? कतिपय समीक्षकों-मंचों की वाहवाही मिल सकती है,पर उनकी नहीं, जिनके लिए यर्थाथ में रचा गया है। वह आज भी एकाधिक बाल पत्रिका को छोड़कर किसी का नाम नहीं जानते हैं। इसलिए,सृजन के साथ-साथ प्रचार-प्रसार पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। कविताएं सुनाकर नाटक-एकांकी मंचित कर सुगमता से बालकों तक पहुंचाए जा सकते हैं।
बाल साहित्य के प्रभाव के सम्बन्ध में कहना चाहूंगा कि,समय,परिस्थितियों व आवश्यकताओं के अनुसार उसमें परिवर्तन,परिवर्धन व प्रस्तुतिकरण का ढंग बदलते रहना चाहिए। उसी प्रकार कि कोई बच्चा एक चित्र बनाता है,उसे अपने पिताजी को दिखाता है। पिताजी उसे बकवास मानते हैं। बच्चे ने कभी सोचा भी न था। अब प्रश्न उठता है कि किसको अपनी सोंच बदलनी चाहिए बच्चे को या उसके पिताजी को ? मेरे दृष्टिकोण से पिताजी को। यही बात विज्ञान के प्रयोग,महत्व को लेकर भी है।वातावरण व देशकाल परिस्थितियों का स्मरण रखकर ही सृजन हो। राकेट लांचर,मिसाइल,ए.के.-47 के युग में धनुष-बाण भाले का वर्णन कहां प्रभावी हो सकता है। केले के पत्ता जैसे कान, उड़ने वाले पहाड़,सुअर की थूथन या भैंसे सींग पर टिकी पृथ्वी की बातों को कहीं आजकल का बालक पचा सकता है। मैंने एक दिन बच्चों से पहाड़ उड़ने की बात की तो उत्तर मिला-छोटा-सा पत्थर तो उड़ता नहीं,क्यों मूर्ख बनाते हो ?,कुछ गले उतरने वाला कहो। कहने का तात्पर्य यही है कि,बाल साहित्यकारों को बालकों की सोंच,ज्ञान और वर्तमान को ध्यान में रखना होगा। तदनुरूप ही विज्ञान सम्मत बाल साहित्य के सृजन की ओर उन्मुख होना पड़ेगा।
#शशांक मिश्र
परिचय:शशांक मिश्र का साहित्यिक नाम `भारती` और जन्मतिथि १४ मई १९७३ है। इनका जन्मस्थान मुरछा-शहर शाहजहांपुर(उत्तरप्रदेश) है। वर्तमान में बड़ागांव के हिन्दी सदन (शाहजहांपुर)में रहते हैं। भारती की शिक्ष-एम.ए. (हिन्दी,संस्कृत व भूगोल) सहित विद्यावाचस्पति-द्वय,विद्यासागर,बी.एड.एवं सी.आई.जी. भी है। आप कार्यक्षेत्र के तौर पर संस्कृत राजकीय महाविद्यालय (उत्तराखण्ड) में प्रवक्ता हैं। सामाजिक क्षेत्र-में पर्यावरण,पल्स पोलियो उन्मूलन के लिए कार्य करने के अलावा हिन्दी में सर्वाधिक अंक लाने वाले छात्र-छात्राओं को नकद सहित अन्य सम्मान भी दिया है। १९९१ से लगभग सभी विधाओं में लिखना जारी है। श्री मिश्र की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। इसमें उल्लेखनीय नाम-हम बच्चे(बाल गीत संग्रह २००१),पर्यावरण की कविताएं(२००४),बिना बिचारे का फल (२००६),मुखिया का चुनाव(बालकथा संग्रह-२०१०) और माध्यमिक शिक्षा और मैं(निबन्ध २०१५) आदि हैं। आपके खाते में संपादित कृतियाँ भी हैं,जिसमें बाल साहित्यांक,काव्य संकलन,कविता संचयन-२००७ और अभा कविता संचयन २०१० आदि हैं। सम्मान के रूप में आपको करीब ३० संस्थाओं ने सम्मानित किया है तो नई दिल्ली में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वरिष्ठ वर्ग निबन्ध प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार-१९९६ भी मिला है। ऐसे ही हरियाणा द्वारा आयोजित तीसरी अ.भा.हाइकु प्रतियोगिता २००३ में प्रथम स्थान,लघुकथा प्रतियोगिता २००८ में सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति सम्मान, अ.भा.लघुकथा प्रति.में सराहनीय पुरस्कार के साथ ही विद्यालयी शिक्षा विभाग(उत्तराखण्ड)द्वारा दीनदयाल शैक्षिक उत्कृष्टता पुरस्कार-२०१० और अ.भा.लघुकथा प्रतियोगिता २०११ में सांत्वना पुरस्कार भी दिया गया है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं। आप अपनी उपलब्धि पुस्तकालयों व जरूरतमन्दों को उपयोगी पुस्तकें निःशुल्क उपलब्ध करानाही मानते हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-समाज तथा देशहित में कुछ करना है।