बड़ी ख़ुशी की बात हे कि,खिचड़ी को राष्ट्रीय आहार घोषित किया जा रहा हैl घर में जब भी खिचड़ी बनती तो पापा हमेशा कहते थे-अपने घर में क्या बनता है,सबको रोज नहीं बतानाl नहीं तो मोहल्ले वाले कहेंगे `खिचड़ी वाले` अंकल जी,क्योंकि मोहल्ले में कुछ लोग तो खिचड़ी के नाम से ही प्रसिध्द हुआ करते थेl अब रोज-रोज क्या बनाओ,ये समस्या तो पूरे देश की हैl हर गृहिणी की आधी जिन्दगी तो ये रटते हुए गुजर जाती है कि,`आज क्या बनाऊं`l ये इनको नहीं भाता,ये सासूजी को नहीं भाता,सो सबका सीधा-सा इलाज है `खिचड़ी`l वैसे खिचड़ी कोई विशेष व्यंजन नहीं है,पर जो बचा-खुचा हो,सब इसमें डाल सकते हैंl जबसे एकल परिवार का विस्तार हो रहा है,बेचारा पति आधे समय इसी व्यंजन को आनन्द लेने का नाटक करता है और कोई चारा भी नहीं हैl पत्नी कामकाज वाली है तो खाना बनाए कौन! जब भी कोई परेशानी हो,एक ही आवाज `खिचड़ी`l वैसे हमको राष्ट्रीय संस्कृति के बारे में भी सोचना चाहिए तो क्यों न खिचड़ी संस्कृति को ही राष्ट्रीय संस्कृति घोषित किया जाए,क्योंकि खिचड़ी संस्कृति के कारण ही आजकल अंतरजातीय विवाह भी हो रहे हैंl कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा,कहीं की सास कहीं का साला,पिता की दूसरी शादी,माँ का दूसरा पति,ये पहले वाले पति की संतान,न माँ असली-न बाप असली..इन सबको मिलाकर परिवार बना लेते हैं,पर जाने-अनजाने में हम लोग इस खिचड़ी संस्कृति को मंजूर कर चुके हैंl अब तो हालत ये है कि,किसी भी घर में जाओ, आधे हिंदुस्तान के दर्शन हो जाएंगेl परिचय ऐसे देंगे-ये हमारे कनाडा वाली आंटी,अरे अभी तो शादी हुईl भारत के बारे में पता नहीं है इनको, और ये पंजाबी बहू हैl बेटे के साथ बैंगलोर में काम करती हैl अब बच्चों का आजकल ऐसा ही हैl और हाँ,हमारी बेटी की भी शादी पक्की कर दी हैl वो असल में कश्मीरी पंडित हैl मतलब रिश्तों में भी खिचड़ी संस्कृति पूरी तरह से घुस चुकी हैl राजनीति की बात करो,तो न विचारधारा,न सिद्धांत,न कोई चरित्र-न चाल, न कोई वफादारी,बस अपना फायदा और कुछ भी करोl खिचड़ी के चावल की तरह से राजनीति के पुराने चावल भी दूसरी खिचड़ी में घुसने की जुगत में लगे रहते हैंl समाजवादी दल और समाजवाद का नामोनिशान नहीं,बस बनाओ खिचड़ीl बहुजन दल,अल्पजन के हित के लिए काम करती है,तो कभी समाजवाद से मिल जाती है और कभी किसी और सेl बस जैसे-तैसे खिचड़ी बनाओ और मजे लोl एक भिया तो सबकी पोल खोल-खोल के आए और जब अपनी पोल खुलने लगी,तो चुप बैठ गए और लगे खिचड़ी बनाने मेंl खिचड़ी में रहने का सबसे बड़ा फायदा ये है कि, भिया कोई जवाबदारी नहीं,कुछ भी हो तो भिया खिचड़ी सरकार है,किसको क्या बोलो! जो दल का आधार नहीं बने वो खिचड़ी बनाने के लिए तैयारl रामलला क्यों नहीं बैठे अभी तक,तो भिया हमारी तो खिचड़ी सरकार थीl मतलब कहीं भी हाथ झटकना हो,तो खिचड़ी संस्कृति…l अब ये तो हम भारतीयों की किस्मत है कि,ज्यादातर राजनीतिक घराने ही खिचड़ी संस्कृति(कल्चर) की देन हैं,तो हम किस-किसको दोष देंl तो भिया अपन भी निवेदन करें कि, खिचड़ी संस्कृति को भी `राष्ट्रीय संस्कृति` घोषित कर दिया जाए और जितने भी `कहीं के ईंट और कहीं के रोड़े हैं` उनको भी खिचड़ी की मुख्यधारा में जोड़ दिया जाएl
#राजेश भंडारी बाबू
..✍भाई भंडारी जी ,आनंददायक रचना ,बधाई।दूसरे फलाहारो का क्या होगा?