स्त्री-पुरुष,एक दूसरे के पूरक हैं या प्रतिद्वंदी। यह एक ऐसा प्रश्न या गम्भीर विषय है-जिसका उत्तर हर एक की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। कहीं यह समानता के रूप में,कहीं पूरक तो कहीं प्रतिद्वंदी के रुप में देखने को मिलता है। यदि हम पीछे देखें तो पाते हैं सृष्टि में सबसे पहले आदम और हब्बा आए। कैसे आए, कहाँ से आए,यह अनुत्तरित ही है। खैर ! उस समय दोनों ने एक-दूसरे की आवश्यक्ता को समझा और सहयोगी बनकर संतति को आगे बढ़ाया। तब दोनों में एक-दूसरे के लिए पूरक का भाव ही था,जो आगे भी सामाजिक व्यवस्था के तहत सहजता और आपसी समन्वय से चलता रहा। कालांतर में समय के साथ विभिन्न कारणों के चलते समानता के विचार को बढ़ावा मिला, जिसे वैधानिक मान्यता भी मिली। मानवाधिकार के प्रति जागरुकता,शिक्षा,आर्थिक पहलू तथा अन्य समान भाव के चलते-दोनों के अंदर से एक -दूसरे के पूरक होने का भाव जाता रहा और बराबरी की शिक्षा तथा आर्थिक सक्षमता से अहम में परिणित भी हुआ। अपने अहम की तुष्टि और अन्यान्य के बहकावे से यह प्रतिद्वंदिता के रुप में भी सामने आया। शिक्षा और आर्थिक पक्ष को मजबूती देने के इरादे धीरे-धीरे खुली स्वच्छन्दता चाहने लगे,जिससे सामाजिक व्यवस्था चरमराने लगी और अनेक परिवार देखते ही देखते दरकने लगे। अभी भी समय है। कहते भी हैं न-‘जब जागो,तभी सबेरा’ मानकर चैतन्य हो जाएँ। यदि हमारी संस्कृति,समाज या घर परिवार को बचाना है,तो दोनों को सामंजस्य अपनाना ही होगा। समानता का भाव ह्रदय पूरकता को स्वीकारें। शादी से पहले दोनों ही अपनी शिक्षा तथा भविष्य बनाने में प्रतिद्वंदिता जरूर रखें,किन्तु शादी के बाद इसे परिवार में तो कदापि न आने दें। तभी सृष्टि नियंता की मंशा और हमारे जीवन की सार्थकता सम्भव हो पाएगी।
#देवेन्द्र सोनी