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परिवार रुपी,
घर-आँगन में,
जबसे लगाना,
भूल गए हम,
प्रेम-संस्कार की ‘बाड़’।
तभी से,
हम सब,
बिखर गए,
घर-आँगन हो गया,
उजाड़ ही उजाड़।
न बचा फाटक,
न बची फटकी,
न बचे उजालदान,
न बची किवाड़ी,
केवल बच गए,
बन्द ‘किवाड़’।
#डॉ. महेशचन्द्र शांडिल्य
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