उत्सव का समय थाl गणेश जी को मैंने प्रणाम किया,तो बड़े अनमने भाव से उन्होंने कहा,-`खुश रहो।` मैंने कहा,-`प्रभु, लेकिन आप ज्यादा खुश नहीं हैं। क्या बात है? क्या आपको हमेशा की तरह नकली घी के लड्डू खिलाए जा रहे हैं? क्या हमेशा की तरह भक्तगण आपके नाम पर चंदा एकत्र करके बीड़ी-सिगरेट फूँक रहे हैं? बोलिए न प्रभु,आप तनाव में क्यों हैं?`
गणेश जी अब मुस्कुरा पड़े और बोले,-`पहली बार कोई भक्त मिला है जो भगवान की हालत को पढ़ रहा है। तुम ठीक बोलते हो बच्चे। मैं अपने ही उत्सव के दौरान अक्सर बहुत दुखी रहता हूं। मेरी ही नाक के नीचे भक्तगण जब जाने-अनजाने में ही मेरा मजाक उड़ाने लगते हैं,तब लगता है ये लोग भक्ति नहीं,कोई नौटंकी कर रहे हैं। कल की ही बात लो। उत्सव के दौरान इन्हें अपनी कला या बौद्धिक प्रतिभा का प्रदर्शन करना चाहिए था,लेकिन ये पट्ठे जोर-जोर से फिल्मी गाने बजाकर नाच रहे थे। बेसुरे होकर गाना गा रहे थे। इनकी उछलकूद देखकर बेचारा चूहा तो डर के मारे भाग खड़ा हुआ। मुझे भी बहुत गुस्सा आ रहा था। पहले सोचा,सबको अपनी सूँड में लपेटकर वहीं पटक दूं,लेकिन छोड़ दिया। ये मूरख हैं, नादान हैं। आज नहीं,तो कल सुधर जाएंगे।`
गणेश जी के भोलेपन पर अब मुझे हँसी आ गई।
मैंने कहा,-`प्रभु,आप भी देख रहे हैं और मैं भी देख रहा हूं। बरसों बीत गए। कल भी लोग नहीं सुधरे थे,आज भी नहीं सुधरेंगे। आज ये लड़के तमाशा कर रहे हैं। कल इनके पिताश्री भी ऐसी हरकतें किया करते थे। उनसे ही यह प्रतिभा विरासत में मिली है। और मुझे तो लगता है कि,आने वाले कल में इनके बच्चे भी आपको विराजित करके इसी तरह से फूहड़ता का प्रदर्शन करेंगे। जिस समाज में उत्सव एक पाखंड हो जाए प्रभु,उस समाज में न धर्म-कर्म के प्रति श्रद्धा बचती है और न भगवानों के प्रति कोई आदर भाव ही रहता है। बस, उत्सव की आड़ रहती है और इनका धंधा चलता रहता है।`
गणेश जी बोले,-`भाई तुमने तो मेरे मन की बात कर दी। लगता है तुम बुद्धिजीवी हो ?`
मैं ज़ोर से हँस पड़ा और बोला,-`भगवन! बहुत अधिक बुद्धि तो नहीं है। जितनी भी है,वह आपकी कृपा से ही है,इसलिए थोड़ा-बहुत सोचने-समझने की गलती कर लेता हूं।`
गणेश जी बोले,-`काश! तुम्हारी तरह हर व्यक्ति सोचने- समझने की गलती करता,तो यह देश भ्रष्टाचार,घोटाले, धोखाधड़ी,बलात्कार और हिंसा जैसे अपराधों में फँसता ही क्यों? अब तो मैं देख रहा हूं कि,यह सुंदर देश दिनों-दिन कितना बदरंग होता जा रहा है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कितनी महान कल्पना करके मुझे उत्सव की मूर्ति की तरह विराजमान किया थाl दस दिन तक रंग-बिरंगे उत्सवों का सिलसिला शुरु किया था उन्होंने। उत्सव के दौरान नाटक होते थे,गायन-वादन होता था,वाद-विवाद प्रतियोगिता होती थी। निबंध प्रतियोगिता होती थी। हर कोई अपनी प्रतिभा निखारने के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम किया करता था,लेकिन अब दो-चार जगह को छोड़ दो,तो बाकी सभी जगह केवल चंदा वसूली और घटिया तरीके से नाचना-गाना किया,बस हो गया गणेशोत्सव। सबसे अधिक डर तो मुझे विसर्जन के समय लगता है भाई। इन पापियों की श्रद्धा का असली चेहरा तो विसर्जन के समय ही देखने को मिलता है। पिछली बार भी यही हुआ। तमाम मूर्तियों को ट्रकों में भर लिया और ठीक पुल के बीचों-बीच पहुंचकर सब लोग मेरी मूर्तियों को एक-एक कर नदी में फेंकने लगे। गोया,मैं कोई कचरा हूं। अरे भाई,जितने प्रेम से मुझे तुमने विराजित किया था,उतनी ही श्रद्धा से मेरा विसर्जन भी तो करो। `गणपति बप्पा मोरिया,पुढच्या वर्षी लवकरया` कहते हुए अपने हाथों से उठाओ और नदी के किनारे धीरे से विसर्जित करो न। मुझे सामान की तरह उठाकर पटक रहे हो? सोचो,मुझे कितनी तकलीफ होती होगी। अरे नालायकों! ऐसा करके तुम मुझे नहीं पटक रहे,अपनी आस्था को पटक रहे हो,अपनी संस्कृति,अपने संस्कार को पटक रहे हो,अपनी नैतिकता को पटक रहे हो। कुछ तो सोचो लल्लूओं कि,तुम कर क्या रहे हो? ऐसा उत्सव मनाने से तो अच्छा है,मत मनाओ। घर में बैठकर टीवी देखते रहो,लेकिन अगर उत्सव कर रहे हो,तो उसकी गरिमा भी बचाकर रखो,बच्चों!!`
गणेश जी की पीड़ा सुनकर मैं शर्मसार हो गया। मुझे लगा कि,अभी यहीं चुल्लूभर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए। यह तो बड़ा अच्छा हुआ कि,वहां चुल्लूभर पानी नहीं मिला,वरना मैं डूबकर मर गया होता,और आप यह व्यंग्य पढ़ने से वंचित हो जाते। मैंने गणेश जी को प्रणाम किया और कहा,-`प्रभु,आपकी पीड़ा जायज है। मैं भटके हुए भक्तों से निवेदन करूंगा कि,वे गणेश उत्सव मनाएं मगर ईमानदारी और समर्पण के साथ। प्रसाद भी चढ़ाएं,तो वह शुद्ध घी-तेल का हो। कार्यक्रम भी सात्विक हों। और हाँ,जब गणेश जी का विसर्जन करें तो मूर्तियों को रद्दी के सामानों की तरह पटकने की बजाए श्रद्धा और भक्ति के साथ दोनों हाथों से उठाकर जल में समाहित करेंl`
मेरी बात सुनकर गणेश जी खुश हो गए। उनका मूसक मगन होकर नाचने लगा। चूहे ने कहा,-`भाई जी,हमें लगता है कि,आपकी बात सुनकर भक्त लोग कुछ तो सुधरेंगे ही।`
अब मुझे भी हँसी आ गई। मैंने पलटकर कहा,-`पता नहीं, सुधरेंगे या मुझे ही सुधारने के लिए दौड़ पड़ेंगे।`
#गिरीश पंकज
परिचय : साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में गत चार दशकों से सक्रिय रायपुर(छत्तीसगढ़) निवासी गिरीश पंकज के अब तक सात उपन्यास, पंद्रह व्यंग्य संग्रह सहित विभिन्न विधाओं में कुल पचपन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके चर्चित उपन्यासों में ‘मिठलबरा की आत्मकथा’, माफिया’, पॉलीवुड की अप्सरा’, एक गाय की आत्मकथा’, ‘मीडियाय नमः’, ‘टाउनहाल में नक्सली’ शामिल है। इसी वर्ष उनका नया राजनीतिक व्यंग्य उपन्यास ‘स्टिंग आपरेशन’ प्रकाशित हुआ है..उनका उपन्यास ”एक गाय की आत्मकथा’ बेहद चर्चित हुआ, जिसकी अब तक हजारों प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. लगभग पन्द्र देशो की यात्रा करने वाले और अनेक सम्मानों से विभूषित गिरीश पंकज अनेक अख़बारों में सम्पादक रह चुके हैं और अब स्वतंत्र लेखन के साथ साहित्यिक अनुवाद की पत्रिका ”सद्भावना दर्पण ‘ का प्रकाशन सम्पादन कर रहे हैं।