सफलता के हज़ार साथी होते हैं,किन्तु असफलता एकान्त में विलाप करती है। यूँ तो सफलता या असफलता का कोई निश्चित गणितीय सूत्र नहीं होता,किन्तु जब पता चले कि,आपकी असफलता कहीं-न-कहीं पूर्व नियोजित है,तो वह स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है। देश की सबसे बड़ी मानी जाने वाली आईएएस की परीक्षा को आयोजित करने वाली संस्था ‘संघ लोक सेवा आयोग’आज घोर अपारदर्शिता और विभेदपूर्ण व्यवहार में लिप्त है। हिन्दी माध्यम के सिविल सेवा अभ्यर्थियों का विशेषतः २०११ के बाद से गिरता हुआ चयन अनुपात सारी कहानी बयान करता है। सम्पूर्ण रिक्तियों का लगभग ३ या ४ प्रतिशत ही केवल हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों के हिस्से में आ पा रहा है। हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों के चयन की गिरती दर का कारण क्या उनकी अयोग्यता-अक्षमता को ठहराया जा सकता है? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है,इसके पीछे कोई तार्किक आधार नहीं है। यह सर्वविदित है,इस परीक्षा के लिए तैयारी करने वालों में सबसे ज्यादा संख्या हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों की ही है,और उनके परिश्रम तथा क्षमताओं को ख़ारिज करने का कोई तार्किक आधार किसी के पास नहीं है। असल समस्या संघ लोक सेवा आयोग के भेदभावपूर्ण रवैए और अपारदर्शिता में निहित है,उस मानसिकता में निहित है जो चाहती है कि,ग्रामीण और क़स्बाई पृष्ठभूमि के अभ्यर्थियों के स्थान पर शहरी पृष्ठभूमि के,अंग्रेज़ी माध्यम के इंजीनियर्स और डॉक्टर्स ज्यादा से ज्यादा चयनित होकर आएँ।
भेदभाव और अपारदर्शिता का यह सिलसिला प्रारम्भिक परीक्षा,मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार,तीनों ही स्तरों तक जारी रहता है। प्रारम्भिक परीक्षा के दोनों प्रश्न पत्रों में व्यावहारिक हिन्दी अनुवाद पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। फलस्वरूप, ‘कन्वेंशन‘ की हिन्दी ‘अभिसमय‘ दे दी जाती है और ‘प्रोजेक्टेड‘की हिन्दी ‘प्रकल्पित‘। ऐसे ही क्लिष्ट और अलोक प्रचलित हिन्दी अनुवाद के कई उदाहरण हैं। इतने जटिल प्रश्न पत्रों में,जहाँ अभ्यर्थी का एक पल भी क़ीमती होता है,वहाँ कई मिनट्स इस भाषाई अनुवाद के चलते ख़राब हो जाते हैं;साथ ही,कई बार ऐसे अनुवाद की साम्यता किसी अन्य शब्द से बिठाकर,अभ्यर्थी ग़लत उत्तर का चयन कर लेता है और हज़ारों की संख्या में हर साल ऐसे अभ्यर्थी होते हैं,जिनका एक या दो अंकों से प्रारम्भिक परीक्षा में ही पत्ता कट जाता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि,गलत अनुवाद के कारण छात्रों से गलत प्रश्न के सही उत्तर मांगे जाते हैं जो असंभव है। प्रारम्भिक परीक्षा की उत्तर कुंजी, अभ्यर्थियों के प्राप्तांक उन्हें इस परीक्षा के लगभग एक साल बाद बताए जाते हैं,जिसका कोई औचित्य नहीं। ओएमआर शीट की कार्बन कॉपी भी अभ्यर्थियों को दिए जाने की कोई व्यवस्था नहीं है।
हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों की मुख्य परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाओं को भी हिन्दी में अदक्ष मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा जाँचा जाता है। ऐसे में पूरी संभावना यह रहती है कि,अभ्यर्थी का लिखा हुआ मूल्यांकनकर्ता तक सही से प्रेषित ही न हो। इस वजह से मुख्य परीक्षा में ही हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों का स्कोर,अंग्रेज़ी माध्यम के अभ्यर्थियों की तुलना में काफ़ी कम रह जाता है। अपारदर्शिता का आलम ये है कि,मुख्य परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाएँ अभ्यर्थियों को दिखाए जाने की कोई व्यवस्था नहीं है,जबकि कुछ राज्य लोक सेवा आयोग तक आरटीआई-आवेदन के माध्यम से ऐसी सुविधा प्रदान करते हैं। साक्षात्कार में जानबूझकर कई बार हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों को असहज करने वाले प्रश्न अंग्रेज़ी में पूछे जाते हैं,साथ ही साक्षात्कार के लिए निर्धारित २७५ अंक परीक्षा में आत्मनिष्ठ प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं,जो किसी भी तरह से उचित नहीं है। यह लड़ाई हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी की लड़ाई नहीं है। अभ्यर्थी किसी भाषाई द्वेष से ग्रस्त नहीं हैं। वैसे भी, अपारदर्शिता से तो अंग्रेज़ी और अन्य भाषाई माध्यम के अभ्यर्थी भी समान रूप से त्रस्त हैं ही। लड़ाई है, भाषाओं के साथ समान व्यवहार करने की। वह हिन्दी जो पूरे देश में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है,वह हिन्दी जो आज़ादी के संघर्ष के दौरान जनसंचार की भाषा बनी थी,वह हिन्दी जो लोचशील है, जो ‘ट्रेन‘ और ‘शायद‘ जैसे अन्य भाषाई मूल के शब्दों को भी सहजता के साथ अपने में समाहित कर लेती है, वही हिन्दी और हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थी आज इतने उपेक्षित क्यों हैं? `इण्डिया गोट फ्रीडम इन १९४७`, जैसा वाक्य, `भारत ने १९४७ में आज़ादी पाई`, से कैसे श्रेष्ठ साबित होता है? ये समस्या केवल उस मानसिकता की है जो हिन्दी को तुलनात्मक रूप से अधिक वैज्ञानिक भाषा होने के बावजूद कम करके आँकती है। समस्या अंग्रेज़ी से नहीं,बल्कि अंग्रेज़ियत की उस मानसिकता से है जो आज भी देश के शीर्ष संस्थानों में छाई हुई है,जो केवल भाषा विशेष में दक्ष होने के आधार पर किसी व्यक्ति की योग्यता के सम्बंध में पूर्वाग्रह पाल लेती है।
ग्रामीण और क़स्बाई पृष्ठभूमि के लाखों अभ्यर्थी सीमित संसाधनों में,कई बार तो अमानवीय दशाओं में गुज़ारा करके इस परीक्षा के लिए अपना अमूल्य समय और ऊर्जा लगाते हैंl इसके बावजूद उनके लिए परिणाम बेहद निराशाजनक हैं। या तो देश के संचालकों-नीति निर्माताओं द्वारा स्पष्ट कह दिया जाए कि,हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों के लिए इस परीक्षा में कोई जगह नहीं है,ताकि वे भ्रम में ना रहें और समय, संसाधन तथा ऊर्जा को कहीं और लगा सकें; या इस संस्था में व्याप्त घोर अपारदर्शिता और भाषाई भेदभाव को यथाशीघ्र समाप्त किया जाए।
(साभार वैश्विक हिन्दी सम्मेलन)