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काव्य भाषा में होते,वैसे तो कई रस।
कानों में मिश्री घोले,क्यूँ ये निन्दा रस।।
निंदक नियरे राखिये,कह गये दास कबीर।
निंदकों की इस जग में लगी पड़ी है भीर।।
यत्र तत्र सर्वत्र,फ़ैला है चौरस।
कानों में मिश्री घोले,क्यूँ ये निन्दा रस।।
दूसरे की बुराई में आता है आनन्द।
खुसुर-फुसुर की बातों से मिलता है परमानन्द।।
अपनी बखत बने रहे,भले जस की तस।
कानों में मिश्री घोले,क्यूँ ये निन्दा रस।।
क्या निन्दा करना ही,निष्कर्ष है पीड़ा का ।
बड़े-बड़े हमलों के बदले बस निन्दा के बीड़ा का।।
कड़े शब्दों में निन्दा करके,सब बैठे है बेबस।
कानों में मिश्री घोले,क्यूँ ये निन्दा रस।।
# शशांक दुबे
लेखक परिचय : शशांक दुबे पेशे से उप अभियंता (प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना), छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश में पदस्थ है| साथ ही विगत वर्षों से कविता लेखन में भी सक्रिय है |