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धीरे-धीरे कई नकाब,चेहरों से उतर गए।
धीरे-धीरे कई बरस जीवन के,चूहे कुतर गए॥
बढ़ता गया दर्द न राह मिली,न राहत ही मिली।
जीवन की उहापोह में,कभी इधर कभी उधर गए॥
सूरज की तपती रश्मि ने कभी जगाया था हमें।
लेकर चाँद को बाँहों में,सूनी राहों से गुजर गए॥
#दशरथदास बैरागी
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