
आज़ाद कहने लगे ख़ुद को,
ख़ुद को मान बैठे हैं हम आज़ाद।
पर किससे मिली आज़ादी हमको?
यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है।
न हमें धार्मिक उन्माद से आज़ादी मिली,
न धर्म पालने की आज़ादी मिली,
न भूखे बच्चे रोना बन्द हुए,
न सड़कों पर भिक्षा माँगती स्त्री हटीं,
न ही धूल और धुएँ से आज़ाद हो पाए,
न रिश्वत और भ्रष्टाचार का बोलबाला कम हुआ,
न लम्पट नेता और भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी हटे।
हाँ, ऊँची-ऊँची इमारतें ज़रूर बन गईं,
पर आज भी मेहनतकश मज़दूर
भारत में रोता मिलना बंद नहीं हुआ।
न दवा के अभाव में मरते लोग समाप्त हुए,
न उच्च गुणवत्ता के बीज आना प्रारंभ हुए,
न मानसिक बलात्कार करते लोग हुए ग़ायब।
नहीं हुआ भोर बासंती अब तक,
नहीं हुआ शोर राष्ट्र का अब तक,
आँख दिखाता अमरीका अभी भी है,
और घुसपैठ करता पाकिस्तान ज़िंदा है।
मिसाइल तो आ गई पर शांति!
शांति नहीं दिखाई देती भूभाग पर।
श्वेत कपोत उड़ते तो हैं पर,
पर क्या… केवल पर कटे हुए।
अब तक नहीं हुई भोर राष्ट्रगन्ध की,
न सूरज निकला तकनीक का अब तक,
न थका हुआ चक्र अब चल रहा,
न लहराते खेत ज़िंदा दिख रहे,
किसानों की आत्महत्याएँ बंद नहीं हुईं,
न नशे से मुक्त युवा पीढ़ी हुई,
फिर कैसा पंद्रह अगस्त आ गया,
जहाँ अब तक अंग्रेज़ियत से आज़ादी नहीं मिली!
अब तक गुलामी की भाषा पर घमण्ड जारी है,
और ग़ुलामी के दस्तावेज़ों का संग्रहालय है भारत।
फिर कैसे कहें आज़ाद हैं हम?
कैसे कह दें स्वाधीन भोर होती है?
कैसे कह दें नरपिशाचों की बलि हो गई?
कैसे कह दें वनिता भीनी हो गई?
ग़मगीन वसुंधरा के घाव अब भी हैं,
बदस्तूर जारी है छलनी होती धरती।
कई सरकारें आईं और कई चली गईं,
आगे भी आएँगी, कई चली जाएँगी,
पर भारत के ललाट का पसीना
अब भी है जस का तस।
रक्तरंजित केसर की क्यारी आज भी है,
गंगा और गोदावरी का जल लाल आज भी है,
आज भी देश में सांप्रदायिकता का भूचाल है।
फिर कैसे कहें हम स्वतंत्र भारत के भाल हैं?
कैसे कह दें हम आज़ाद और ख़ुशहाल हैं?
बताओ…?
#डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

