किस गली जा रहा है समाज और बच्चें?

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ग्रामीण परिवेश से आए कुछ युवाओं में तेजी से आए परिवर्तन पर जब गौर किया और शिक्षक साथियों से चर्चा की तब भारतीय संस्कार और परम्पराओं पर उठे अनेक प्रश्नों ने विचलित कर दिया है।बात उनकी है जिन्हे हॉस्टल में रख कर शहरों में उच्चशिक्षा पाने और भविष्य बनाने के लिए परिवार मेंआर्थिक संकटों के बावजूद भेजा जाता है।कुछ ही अर्से बाद उनका जो कायाकल्प होता है वह देख कर हैरानी से ज्यादा पीड़ा होती है। आधुनिकता के नाम पर जब इनमें से कुछ युवतियाँ नन्हीनेकर और छोटा सा टॉप पहने, मंहगे प्रसाधन,नई हेअर स्टाइल, कीमती मोबाइल , होटलबाजी, खुले आम सिगरेट और शराब पीती ,मंहगी गाड़ियों में नए मित्रों के साथ बेझिझक आते जाते दिखती हैं तो आँखें शर्म से झुक जाती हैं।आखिर हम किस आधुनिक युग में साँस ले रहे हैं?कक्षा में कम उपस्थिति को ले कर
यदि किसी टीचर ने टोक दिया तो इनके हिमायती बॉयफ्रेंड टीचर को ही धमकाने आ धमकते हैं “अपने काम से काम रखो ना! पर्सनल मेटर में नाक घुसेड़ने की कोशिश ना ही करो तो आपकी सेहत के लिए अच्छा होगा”। उनके माँ-बाप सोचते होंगे हमारी बिटिया का भविष्य बन जाएगा ।शहर पढने गई है ।उन्हे नहीं पता बेटी कैसा भविष्य बना रही है।धड़ल्ले से गालियां देते,बुजुर्गों का अपमान करते समय ये भूल जाती हैं कि किस परिवेश और संस्कारों से निकल कर आई हैं।कभी ग्रामीण संस्कृति को आदर्श माना जाता था। शुद्ध और पवित्र वातावरण से निकल कर शहरी प्रदूषित वातावरण में नैतिकता की धज्जियाँ उड़ाती ये कौन सी मानसिक विकृतियाँ पनप रही हैं जो भारतीय परिवारों और रिश्तों में सेंध लगा रही हैं?क्या यही प्रगतिशीलता है?

डॉ. पद्मा सिंह,

साहित्य मंत्री, श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर

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