रंग दो मोहे रंगरेज़…

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‘इश्क़’ शब्द से शुरू हुई एक कहानी, न जाने कितने रिश्तों को जन्म देती है। कहानी के मूल में कोई तत्त्व है तो वह प्रेम, भाव, स्नेह, प्रीत, मोह है। इसी मोह के धागे से बँधा जीवन नेहल होता है।
प्रेम आत्मा के मनोभावों को परमात्मा तत्त्व से एकाकार करता है, प्रेम देह से परे नेह में अपना अधिकार करता है, प्रेम अनासक्ति से निकलकर आसक्ति को स्वीकार करता है, प्रेम प्रपंच से मुक्त कर सुखाय प्रवृत्ति की ओर बढ़ाता है, प्रेम मोहग्रस्त होकर भी बन्धनमुक्त रखता है, प्रेम प्रभु का पर्याय और आत्मा का साक्षात्कार है।
संसार में रहने के कई कारणों में से प्रेम सर्वोपरि है। प्रेम अनियंत्रित होकर भी व्यक्तिशः नियंत्रित रहता है, प्रेम आकर्षण का सिद्धांत है और संस्मय का कारण।

देह और विदेह दोनों ही स्वरूप में प्रेम की उल्लेखनीय उपस्थिति व्यक्ति को नि:स्वार्थ बनाती है, निर्लोभी रखती है। इसी प्रेम को आराध्य श्री कृष्ण ने जगत में परिभाषित करके संसार में उठने वाली तमाम उंगलियों, आक्षेपों से मुक्त कर दिया।
वर्तमान में प्रेम के स्वरूप में बदलाव तो हुए किन्तु उस प्रेम की ऊर्जा में कोई कमी नहीं आई। जैसे शरीर को जीवित रहने के लिए प्राणदायिनी ऑक्सीज़न की आवश्यकता होती है, वैसे ही मन को जीवित तब ही रखा जा सकता है, जब वह प्रेम के सामीप्य में हो, अन्यथा मन की गति बाधित होते हुए ऊर्जा क्षीण हो जाती है।
प्रेम, जीवन का दिव्यता-बोधक पृष्ठ है, जिसमें भव्यता हो अथवा न हो किन्तु दिव्य भाव सदैव विद्यमान रहेगा।
एक स्त्री और पुरुष के भीतर विद्यमान प्रेम की व्याख्या से पहले उनके मनोभावों का चित्रण करना आवश्यक है। दो विपरीत लिङ्ग के प्रति आकर्षण से आरंभ हुई यात्रा प्रेम के कृष्ण तक पहुँचती है।
प्रेम काट्य से अकाट्य तक की निर्विकार यात्रा है, जिसमें मानव मात्र का रम जाना निहित है।
बहरहाल, बात वर्तमान परिदृश्य में प्रेम के स्वरूप की करें कि आख़िर, इस दौर में लोग आत्मा के आलिंगन से दैहिक आकर्षण तक कैसे आ गए! तब यह बात भी उठेगी कि आधुनिकता की होड़ में हम पश्चिमी संस्कृति की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं और वहाँ प्रेम का खुला स्वरूप ही सर्वमान्य है।
बात पश्चिम की हो या पूरब की किन्तु दोनों ही स्थिति में प्रेम बन्धन-मुक्त ही रहा है। बच्चे का माँ-पिता से प्रेम हो अथवा एक लड़की का लड़के से, स्त्री का आदमी से हो, शादी के पहले का प्रेम अथवा शादी के बाद का प्रेम हो, सभी स्थितियों में प्रेम तो निर्बाध प्रेम ही रहता है।

भारतीय संस्कृति में सतयुग में राम और सीता के बीच निःस्वार्थ प्रेम रहा, जिसमें एक स्त्री अपने प्रेम को मिले वनवास की पीड़ा में अकेले न सहते हुए सहमार्गी हो गई, पथरीले मार्गों, कष्टप्रद स्थानों पर उस सुकोमल राजकुमारी या राजपरिवार की बहू ने अपने प्रेम के लिए सहज मन से चलना स्वीकार किया। यही नहीं, दूसरी ओर राम जी ने अपने प्रेम के बिछड़ने या कहें अपहृत होने पर संसार के बड़े राक्षस योद्धा से युद्ध कर अपने प्रेम को पुनः अर्जित किया। यह प्रेम का मूलाधार था।

इसी तरह, भारतीय दर्शन ने कृष्ण और राधा को दुनिया के सामने विश्व के अद्भुत प्रेम आख्यान के रूप में दर्शाया है। जिस तरह ब्रजभूमि का सौन्दर्यबोध कृष्ण और राधा के ही प्रेम की कहानी कहता है, वैसा संसार में अन्यत्र सम्भव नहीं।
आधुनिक दौर में शेक्सपियर के लिखे नाटक से ही इटली के वेरोना शहर में घटित रोमियो जूलियट की प्रेम कहानी का सार भी यही कहता है कि प्रेम स्वच्छंद होते हुए नेह प्रधान होता है।
धीरे-धीरे इस प्रेम के खुलेपन को नग्नता की तरफ़ मोड़ना शुरू हो गया।
दुनिया के इतिहास में 1917 की रूसी क्रान्ति ने 20वीं सदी का अलग पक्ष रखा था। अक्टूबर क्रान्ति के नतीजे में अस्थायी सरकार हटा कर बोल्सेविक सरकार बनी। तब फ़्री लव की परिकल्पना पहली बार लिखित दस्तावेज़ अथवा स्वीकार्य रूप में दुनिया के सामने आई। रूस में कम्युनिस्ट सरकार से पहले जारशाही में औरतों पर अत्याचारों की अति थी। जारशाही में वेश्या का पेशा करने वाली महिलाओं को पीला कार्ड जारी किया जाता था। यह येलो कार्ड महिलाओं के शोषण का प्रतीक था। जारशाही अफ़सर किसी भी महिला से नागरिक कार्ड छीन कर उसे पीला कार्ड जारी कर देते और उसे जीवन भर के लिए वेश्यावृति में ढकेल देते।

क्रान्ति ने पहली बार पीले कार्ड की व्यवस्था को खत्म किया। लेकिन इस क्रान्ति ने जिस आज़ादी को जन्‍म दिया था, उससे अनेक युवा कम्युनिस्टों ने फ़्री लव को अपना लिया, जो एक तरह का बंधन-रहित प्रेम था।

प्रेम गुण-दोष से युक्त अथवा मुक्त तो हो सकता है किन्तु इन सब के साथ-साथ स्वैच्छिक और सहमति से होता है। आधुनिक कालखण्ड में प्रेम को बन्धनकारी और बोझिल बनाया जा रहा है, सीधे तौर पर कहें तो उपभोक्तावादी विचारधारा के पोषण और संरक्षण से प्रेम विकृति हासिल कर रहा है। भारतीय संस्कृति में अनादिकाल से ऋषियों, राजाओं, मनीषियों के द्वारा प्रेम की लिखी व्याख्याओं, कवियों इत्यादि में यथार्थबोधकता के साथ-साथ सुकोमलता का प्रतिबिंब भी है। कवि, गायक, संगीतकार, साहित्यधर्मी इत्यादि लोगों ने हमेशा से प्रेम को जब भी लिखा, उसके पीछे यथार्थ भी कृष्णमन ही रहा है। संसार में कृष्णसम प्रेम की व्याख्या जैसा कोई अन्य पैदा नहीं हुआ।
प्रेम के सदृश्य कोई अन्य भाव कभी उतना बलवान नहीं हो पाया, जितना प्रेम का अधिग्रहण रहा। इसीलिए प्रेम को सर्वोपरि माना गया, यहाँ तक कि स्वीकार करके अंगीकार किया गया।

बहरहाल, प्रेम के वर्तमान स्वरूप में आई विकृतियों को हटाते हुए प्रेम के वास्तविक अर्थों का बोध होना चाहिए, दैहिक समर्पण प्रेम के सादृश्य हो तो प्रेम का अंग है किन्तु दैहिक अपेक्षाओं के लिए प्रेम का बहाना लिया जाए तो निश्चित तौर पर प्रेम कतई शेष नहीं रहा।
प्रेम आँखों की भाषा पढ़ता है, प्रेम साँसों की आवाज़ सुनता है, प्रेम धड़कनों के स्वर महसूस करता है, प्रेम तो रोम-रोम की हलचल से संवाद करता है, प्रेम आत्मा का स्पर्श जानता है, इसीलिए प्रेम कभी विकृत नहीं होता, मलीनता केवल बुद्धि की हो सकती है, प्रेम की नहीं।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
लेखक एवं पत्रकार,
इन्दौर

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आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।