आठ अरब मनुष्य याने आठ अरब विचार शैली और स्वभाव!

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◆ अनिल त्रिवेदी, इन्दौर

मनुष्य को जन्म के साथ ही मनुष्य शरीर को आकार मिलता है।पर मनुष्य का आकार ,आचार, विचार और स्वभाव अपने आप में मनुष्यता का पर्याय नहीं बन जाते। मनुष्य और पशु या अन्य जीव जन्तुओं में यही मूलभूत अंतर है, अन्य सभी जीव जन्तु जन्माना जिस आकार प्रकार और शैली में जीवन यापन करते हैं वह आखरी सांस तक एक जैसा ही बना रहता है। वे उसमें चाहकर भी संशोधन, संवर्धन या परिवर्तन नहीं कर सकते। पर मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। मनुष्य जैसा पैदा होता है वैसा आचरण और व्यवहार जीवन पर्यन्त नहीं रख पाता। पशुओं का मूल स्वभाव जन्म से मृत्यु तक कायम रहता है। पर मनुष्य आकार प्रकार में मनुष्य होते हुए भी कब क्या और कैसा आत्मघाती, हिंसक आचार और व्यवहार कर बैठेगा और अपने मनुष्यत्व को अकारण या सकारण उत्तेजित हो त्याग देगा या अध्यात्म की राह चल कर ध्यानमग्न होकर शांत स्वरूप अपना लेगा यह सामान्य रूप से कभी भी कहना संभव नहीं है। मनुष्य प्रकृति की ऐसी रचना है जो प्रकृति से प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ को ही विकसित जीवन मानने लगा है। मनुष्यों के विकास का सहज अर्थ मनुष्यता का विकास हैं।आज के काल खंड में मनुष्य अपने बनाए मकड़जाल में उलझता जा रहा है और आधुनिक काल की चुनौतियों के सामने असहाय हो रहा है।
आज मनुष्य को जीवन में जिन जटिलताओं का सामना करना पड़ता है उनका जन्मदाता स्वयं मनुष्य और उसकी संकुचित अवधारणाओं को ही जाता है।आज के कालखंड में मनुष्य का जीवन सरल सहज दिनचर्या को छोड़कर अकारण भागादौड़ी और लोभ लालच की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। इसका नतीजा मनुष्यों के आपसी व्यवहार, आचार और चिंतन प्रणाली में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। मनुष्य सरल और प्राकृतिक जीवन त्याग ,जटिल अप्राकृतिक एवं एकरस यांत्रिक जीवनचर्या को अपनाता जा रहा है। अत्यधिक तनाव और प्रतिस्पर्धा वाली जीवन शैली से मनुष्यों को अपने समकालीन मनुष्यों के साथ ही समन्वय रखने में जटिलता महसूस होने लगी है।इस परिस्थिति का सीधा असर मनुष्य के आपसी व्यवहार, आचार, विचार और चिंतन प्रणाली पर अत्यधिक होता दिखाई देता है।आज के मनुष्य को स्वयं अपने आप पर और अपने आस-पास के समकालीन मनुष्यों पर पहले जैसा विश्वास नहीं रहा इस कारण मनुष्यों में खुल कर बातचीत करने की पुरातन पर प्राकृतिक जीवन शैली लगातार लुप्त होती जा रही है। इसलिए हमारी दुनिया में मनुष्य के असहिष्णुता पूर्ण विचार और व्यवहार से नित नई चुनौतियां पल पल में दुनिया के हर हिस्से में खड़ी होती है और मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से या समूह में ऐसी व्यवहारगत और अमानवीय घटनाओं के कारण भयग्रस्त मानसिक तनाव को जीवन का एक आयाम मान कर असहाय जीवन जीने को अभिशप्त होना पड़ता है।इस असहाय जीवन का कारक मनुष्य स्वयं है।आज की विकसित दुनिया में मनुष्यों के चिंतन में एक बात यह तेजी से आती जा रही है कि उनके जीवन में आ रही समस्या या तनाव का मुख्य कारण वे और उनकी चिन्तन प्रणाली, आचार व्यवहार न होकर अन्य समकालीन मनुष्यों के कारण है। यानी आज का मनुष्य अपने समकालीन मनुष्यों को दोषी मानते हुए समस्या का समाधान करने हेतु स्वयं हरसंभव प्रयास करने से बचना चाहता है और यांत्रिक रूप से सारा दोष दूसरे मनुष्यों पर डालते जाने से मनुष्य शारीरिक आकार प्रकार में तो मनुष्यों जैसा दिखाई देता है पर बहुत बड़ी संख्या में दुनिया के मनुष्य अपनी कमियां ढूंढकर उन्हें समाप्त करने से लगातार बच रहे हैं। जिससे मनुष्य का रोजमर्रा का व्यवहार, आचरण और जीवन दुनिया भर में मनुष्यकृत विस्फोटक मानसिक तनाव में तेजी से बदल रहा है।
आज की दुनिया में मनुष्यों की संख्या आठ अरब तक पहुंच गई है।आठ अरब मनुष्य याने आठ अरब विचार शैली और स्वभाव! हमारी दुनिया की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां एक जैसा दूसरा कोई नहीं है। चाहे प्राणी जगत जिसमें मनुष्य भी शामिल हैं हो या वनस्पति जगत जैव विविधता सबसे अनोखी बात है। मनुष्य जो इस दुनिया में सबसे ज्यादा सृजनात्मक और विध्वंसात्मक क्षमता रखने वाला जीव हैं की व्यक्तिगत भूमिका स्वयं पर और अन्य मनुष्यों के जीवन पर महत्वपूर्ण रूप से प्रभाव डालती है।इतनी अधिक जैव विविधता और वैचारिक विरोधाभासों के व्यापक समन्वय से ही मनुष्य के मन और जीवन में मनुष्यता का भाव प्राकृतिक अवस्था में बना रह सकता है।हर परिस्थिति में समन्वय और सहजीवन ही मनुष्य समाज में मनुष्यता को क़ायम रख सकती है। अभी हम-सब याने प्राणी जगत और वनस्पति जगत आपसी सहयोग ,समन्वय और सद्भाव से ही मानवीय जीवन और मूल्यों को जिस रूप में बनाये रखने में सफल हुए हैं। मनुष्य और मनुष्यता एक दूसरे के पर्याय बने रहकर ही सहजीवन कर सकते हैं।मनुष्य मनुष्यता को अपने जीवन में निरंतर बढ़ाते हुए अपना अनोखा मौलिक अस्तित्व बनाए रखने को ही अपने जीवन जीने का प्राकृतिक क्रम समझे तो ही वनस्पति और मनुष्येतर प्राणी जगत अपने असंख्य विविधता भरे विरोधाभासों के होते हुए भी दुनिया की व्यापक समझ के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को निजी और सार्वजनिक जीवन में क़ायम रखकर इस दुनिया को सबसे निरापद जीवन की जगह के रूप में कायम रखने में सहायक हो सकते हैं।

#अनिल त्रिवेदी, अभिभाषक एवं स्वतंत्र लेखक

त्रिवेदी परिसर ३०४/२भोलाराम उस्ताद मार्ग, ग्राम पिपल्या राव आगरा मुम्बई राजमार्ग इन्दौर मध्यप्रदेश।

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।