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यूँ बिना ख्वाब के तुम घर से निकलते क्यूँ हो।
पाँव के छालों से डरते हो तो चलते क्यूँ हो॥
अच्छे खासे हो मियां थोड़ी तो मेहनत कर लो।
यूँ जवानी में भरी बैठ के ढलते क्यूँ हो॥
धूप में रहना है तो खुद को यूँ पत्थर कर लो।
बन के तुम बर्फ भला ऐसे पिघलते क्यूँ हो॥
ख़ुद को हर रोज तपाकर वो बना है कुंदन।
बेसबब उसकी तरक्की पे यूँ जलते क्यूँ हो॥
वक़्त से पहले मुकद्दर से न मिलता ज्यादा।
सब्र से काम लो बिन बात मचलते क्यूँ हो॥
ख़्वाहिशें रखते हो छू लेने की जब तुम अंबर।
होके बेखौफ़ उड़ो,इतना सँभलते क्यूँ हो॥
जब भी मिलते हो कोई और नज़र हो आते।
तुम नए चेहरे यूँ हर रोज़ बदलते क्यूँ हो॥
#सुमित अग्रवाल
परिचय : सुमित अग्रवाल 1984 में सिवनी (चक्की खमरिया) में जन्मे हैं। नोएडा में वरिष्ठ अभियंता के पद पर कार्यरत श्री अग्रवाल लेखन में अब तक हास्य व्यंग्य,कविता,ग़ज़ल के साथ ही ग्रामीण अंचल के गीत भी लिख चुके हैं। इन्हें कविताओं से बचपन में ही प्यार हो गया था। तब से ही इनकी हमसफ़र भी कविताएँ हैं।
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