आज आज़ाद है वतन, अंग्रेज़ों की चंगुल से,
मास्क ने लोगों की सांसों को, कैदी बनाया है।
अरमानों की बारात सजाता है, इंसाँ ज़िन्दगी में,
चला ख़ंजर ख्वाहिशों पर,रूख़सत हो गए अरमाँ।।
हाथ हाथों से मिल जाते मुस्कुराते कई चेहरे
सैनीटाइजर लगा कर भी डरे सहमे कई चेहरे
महज़ एक चारपाई पर सुकूँ की नींद मिल जाती
पैसे देकर भी,रुग्णालय का एक बेड नही मिलता।।
जिन अपनो से मिलते थे,बैठ बातें किया करते
आखिरी बार मिलने को आज जद्दोजहद करते
बुजुर्गों से नही मिलते, दुहाई वक़्त का देकर
आज उनकी ही सूरत देखने को तरसना पड़ता।।
मुफ़्त में ऑक्सीजन मिलती, मुफ़्त की सेवा पेड़ो से
आज हीरे सी कीमत है, बिकते ऊँचे दामों में
सोशल मीडिया पर विज्ञापन, शक्ल का जो किया करते
पीपीई किट में आज वही, शक्ल अक्सर छुपाते हैं।।
नही कुछ भी यहाँ अपना, हुआ वाकिब विचारों से
आज इंसान भी डर कर पिंजरे में कैदी बना रहता।
हुआ सदा गलतफहमी, उसके मर्ज़ी की दुनिया है
गुलामी उस वायरस की जिसका वजूद भी ओझल।।
जिन पैसों के बलबूते ऐशोआराम फरमाता
नही पैसों की कुछ कीमत, तभी दम तोड़ देता है
याद वह वक्त भी मुझको, आवा जाही थी सड़कों पर
आज वीरान सड़कें हैं, सहम जाता निकलते ही।
अपने संस्कार भूला था स्वार्थ की पराकाष्ठा में
तरसती है वही लाशें, अंतिम संस्कार पाने को,
यह कैसा भयावह मंज़र, जहाँ घर टूट जाते हैं
टूटकर बिखर जाना मुझे अक्सर डराती है।।
फरहाना सय्यद
सोलापुर (महाराष्ट्र)