पत्थरों की गुफाओं में कभी,
रहते थे हम,
निर्वस्त्र और नग्न कभी,
रहते थे हम।
पत्थरों के औजारों से कभी ,
आखेट हमने ही किया था।
कच्चा माँस और रक्त कभी,
हमने ही तो पिया था।
जब हम तरक्कियों के दौर में,
कांक्रीट के बने घरों में रहते हैं,
पशुओं को छोड़ हम आदमी का,
बड़ी बेरहमी से शिकार करते हैं।
रक्त की बूँदों का रसास्वादन करते हैं,
अपने अंदर पाशविकता जाग्रत करते हैं।
हम आदमियत छोड़कर,
आदमखोर बन गए हैं,
आदमखोर बन गए हैं।
#एड.महेन्द्र श्रीवास्तव
परिचय : एडवोकेट महेन्द्र श्रीवास्तव दमोह (म.प्र.)में रहते हैं। आपको लेखन के लिए महेश जोशी स्मृति सम्मान सहित साहित्य मेला इलाहाबाद में भी सम्मानित किया गया है। चित्रगुप्त न्यास दमोह द्वारा भी सम्मानित हैं।