मन की कली मन में खिली
तो गाँव-गाँव वो चली,
थोडी़-सी थीं यादें मेरी
वो भी पाँव-पाँव चली।
सफर जो धूप का किया
तो एक तजुर्बा-भी मिला,
वो जिन्दगी-भी क्या भला,
जो सफर छाँव-छाँव चली।
नजर अगर थोड़ी झुकी
तो मन की आस भी बंधी,
अगर नजर थी प्यार की
तो डोर से वो क्यों बंधी।
सब्र का भी बांध था
जो खारा-खारा हो गया,
मन की कपोल-कल्पना में
वो बेसहारा हो गया।
जिन्दगी की दौड़ में
तू अकेला रह गया,
प्यार था तेरा वही,
जो अहं में खो गया।
वो गाँव भी क्या गाँव था
मंदिरों के भेष में ,
शब्द डूबे थे जहां,
शहद के ही लेप में।
मन का गुबार भी वहां
पल में ही हवा हो गया,
छुपी हुई थी जो हंसी,
मचल-मचल बिखर
मन मेरा मगन हुआ
तो दिल का तार-तार भी,
मुस्कुरा के कह उठा
आ गई बहार-भी।।
#कार्तिकेय त्रिपाठी
परिचय : कार्तिकेय त्रिपाठी इंदौर(म.प्र.) में गांधीनगर में बसे हुए हैं।१९६५ में जन्मे कार्तिकेय जी कई वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं में काव्य लेखन,खेल लेख,व्यंग्य सहित लघुकथा लिखते रहे हैं। रचनाओं के प्रकाशन सहित कविताओं का आकाशवाणी पर प्रसारण भी हुआ है। आपकी संप्रति शास.विद्यालय में शिक्षक पद पर है।