संसद के दर पर सियासतदारी

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hemendra
भारतीय संसद इस बात का प्रमाण है कि,हमारी राजनीतिक व्यवस्था में जनता सबसे ऊपर है,जनमत सर्वोपरि है। भारत दुनिया का गुंजायमान,जीवंत और विशालतम लोकतंत्र है। यह मात्र राजनीतिक दर्शन ही नहीं है,बल्कि जीवन का एक ढंग और आगे बढ़ने के लिए लक्ष्य है। भारत का संविधान पूर्ण रूप से कार्यात्मक निर्वाचन पद्धति सुनिश्चित करता है,जो लोगों के द्वारा,लोगों के लिए और लोगों को सरकार की ओर ले जाता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि,राजनीतिक शासन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया भारतीय समाज के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं तक नहीं पहुँच पाई है। भारतीय संविधान में निहित सभी के लिए समान अवसरों के प्रावधान होने के बावजूद ये वास्तविक जीवन में धरातलीय नहीं हो पाए। अलबत्ता जाति,धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव अब भी समकालीन भारतीय समाज में मुंह फाड़े खड़ा है। इसे जड़मूल करने की पहल सदनों को हर हाल में राजनीतिक विचाराधारा से परे रहकर निभानी होगी,अन्यथा भविष्य में इसके वीभत्स परिणाम सारे देश को आह्लादित करेंगें। सदनों में नेताओं की नूरा-कुश्ती  के हालातों से कयास तो यही लगाए जा सकते हैं।
बहरहाल,लोकतंत्र का पहलू यह है कि,आर्थिक शक्तियां कुछ ही हाथों में संकेन्द्रित न होकर संपूर्ण लोगों के हाथों में निहित हो। आर्थिक लोकतंत्र,धन के समान और न्यायसंगत वितरण और समुदाय के प्रत्येक सदस्य के लिए स्वच्छ जीवन स्तर पर आधारित है। लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य जनता का कल्याण करते हुए देश का सर्वांगीण विकास और सुरक्षा मुहैया करवाना है। इसके निर्वहन की जवाबदेही सदनों को सौंपी गई है,जिसकी कमान सियासतदारों के हाथ में है कि,संसद को राजनीतिक दल-दल दंगल बनाते हैं,या जन-जीवन का मंगल।
यथोचित सदन हमारे आधार स्तम्भ हैं,जो विधानसभा,विधान परिषद और लोकसभा व राज्यसभा के रूप में शान से खड़े हैं। ये सदन वह धुरी हैं,जो देश के शासन की नींव हैं। जहां 130 करोड़ भारतीयों की किस्मत का फैसला होता है।बेतरतीब लोकतंत्र का मंदिर संसद अब राजनीतिक महत्वकांक्षा के आगे तार-तार होते जा रहा है। अविरल संसद के दर पर सियासतदारी बदस्तूर जारी है। यह रुकने का नाम नहीं ले रहा है,उल्टे सियासतदारों के लिए वोट बैंक की राजनीति का जरिया बन चुका है।
दरअसल,सड़क और चुनाव के मैदान में लड़ी जाने वाली राजनीतिक लड़ाई सदन में लड़ी जा रही है। लड़ाई मुद्दों की नहीं,अपितु अहम और वजूद की है। प्रतिभूत होती है तो सदन के समय और देश की गाड़ी कमाई की बर्बादी और कुछ नहीं,जबकि संसद विधायी कार्यो और देश के सामने खड़ी चुनौतियों,विकास कार्यो,प्रगति और अहम मसलों पर बहस के लिए है,पर संसद के अनेकों सत्र सालों से कुछेक उपलब्धियों के साथ हंगामे और राजनीतिक पराकाष्ठा की बलि चढ़ते जा रहे हैं। सदनों की कारवाई आगामी दिनों तक के लिए स्थगित होते-होते सत्र की इतिश्री हो जाती है। संसद का न चलना एक देशविरोधी अविवेकशील राजनीति का परिचायक है,दूसरी ओर संसद में होने वाले गतिरोधों से सरकार के महत्वपूर्ण बिल अटकते हैं।
आखिर इसकी परवाह किसे है? हॉं,होगी भी क्यों,क्योंकि इन हुक्मरानों के लिए राजनीति का एक मतलब है विरोध, विरोध और सिर्फ विरोध…। इन्हीं की जुबान में कहें,तो विरोध तो एक बहाना है,असली मकसद तो सत्ता हथियाना और बचाना है,जबकि पक्ष-विपक्ष की नुक्ताचीनी के बजाय संसद के दर को सियासतदारी से परे जन-जन की जिम्मेदारी का द्वार बनाना चाहिए। लिहाजा दुनिया की अद्वितीय संसदीय प्रणाली नीर-क्षीर बनी रहेगी। आच्छादित उम्मीद लगाई जा सकती है कि,स्वच्छ और सशक्त लोकतंत्र के वास्ते हमारे सियासतदार आगामी सत्रों में सदन के बहुमूल्य समय को अपनी राजनीति चमकाने के इरादे से बर्बाद नहीं करेंगे।
                                                                           #हेमेन्द्र क्षीरसागर

 

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