135 करोड़ के जनमानस की आस्था और उमंग को अपने भीतर समाने वाला, सभी धर्मों,जातियों,समाजों को समानता से अपनाने वाला,सबका प्यारा,सबसे न्यारा देश है हमारा “भारत” । भारत के बारे में यूं कहा जाता है कि-“कोस-कोस पर बदले पानी,दो कोस पर वाणी” ये उक्ति यहाँ बड़ी सच्चाई के साथ स्वीकारी भी जाती है । देश ने जहाँ 5 वी सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था के तौर पर अपने आपको स्थापित किया था तो वहीं दुनियां के नक्शे पर भारत दूसरों से अलग “स्मार्ट इंडिया” भी नज़र आ रहा था । अब हालात और वक्त तस्वीरों में कुछ अजीब से रंग भरने की तैयारी कर रहे हैं । पिछले 70 सालों से कई सरकारें आई और गई किसी ने भारत को गाँवों का देश कहा तो किसी ने किसानों का देश,किसी ने तकनीकि का देश माना तो किसी ने यंग इंडिया,शाईनिंग इंडिया और राईजिंग इंडिया के जुम्लों से भारत को प्रस्तुत करने की कोशिश की । सरकारों का ये दौर यूं ही चलता रहा है और देश में हक़ीकत और दिखावें दोनों के बीच की दीवार को ऐसी मोटी खाल से ढंका गया कि ना कोई इस पार देख सकें और ना कोई उस पार को समझ सकें । आज़ादी के बाद से ही देश भावना प्रधान सोच को लेकर आगे चला और आगे बढ़ा है । बहुत से तथ्य और वस्तुस्थिति ऐसा प्रस्तुत भी कराते नज़र आ रहे हैं । पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी जी ने अपने भाषण में स्वीकार था कि-” ऊपर से चला 1 रुपया नीचे तक पहुँचते-पहुँचते 10 पैसे रह जाता है ।” लेकिन तब भी अफ़सोस की श्री राजीव जी ने अपने प्रधानमंत्री काल में “गरीब रथ” चलाने के बजाए सूचना प्रोद्योगिकी पर ही ज़ोर दिया । परिणाम अमीर और अमीर हुए और गरीब सिर्फ़ ग़रीब ही रहा । क्रम बदला सरकारें बदली किसी ने बोफोर्स और शहीदों के ताबूतों को लेकर जनता से भावनात्मक खिलवाड़ किया,किसी ने मंदिर-मस्जिद के नाम पर,किसी ने शाईनिंग इंडिया के नाम पर तो कोई अच्छे दिन के नाम पर आमजन की भावनाओं को कठपुतली बनाकर खेलते रहे । सार ये निकला की भावनात्मक कार्यो पर सभी सरकारों का बहुत ज्यादा ज़ोर नज़र आया । लगभग सभी सरकारों ने मानो ये तय कर लिया था कि उन्नति,प्रगति चाहे धरी रह जाये,विकास चाहे पागल हो जाये लेकिन भावनात्मक विकास का तो खूब प्रचार-प्रसार होना चाहिए । वर्तमान “कोरोना काल” में भी जहाँ अस्पतालों के सुधार की बात होनी चाहिए,वेंटिलेटर की व्यवस्था की बात होनी चाहिए,सेफ्टी कीट एवं मरीज़ो के पर्याप्त इलाज की बात होनी चाहिए वहीं थाली,ताली,दीपक की बात भावनात्मक विकास की तरफ इशारा नहीं तो और क्या है? ग़रीबी की बढ़ती दर, मजदूरों का पलायन,देश की शिक्षा प्रगति आती लगातार गिरावट ,गिरती अर्थ व्यवस्था आदि सब पर कोई तथ्य अगर भारी साबित हो रहें हैं तो वो हैं- “नमस्ते ट्रम्प”,विशाल प्रतिमा निर्माण,विदेशी यात्राओं की फिजूल खर्ची और शराब की दूकानों को खुलने की मिली स्वछंद छूट ये सब भावनात्मक सोच के परिणाम ही तो है । वक्त और हालात साफ कह रहे हैं कि “कही तो कुछ गड़बड़ हैं” और अब भी यदि भावनात्मक सोच से ऊपर उठकर हमारी सरकारों ने व्यवहारिक दृष्टिकोण को नही अपनाया तो तय है कि अभी तक भी मित्रों, भाइयों-बहनों आदि दिल को छू लेने वाले ये शब्द जो दिल को बहुत भांते हैं यही दिल पर बहुत जल्द बहुत भारी पड़ेंगे । उम्मीद है वक़्त और सोच दोनों बदलेंगी और भावनाओ के दिखावे से निकल कर हक़ीकत भरे “अच्छे दिन” ज़रूर आएंगे।
लेखक
माजिद शेख (कूक्षी)
जिला-धार
परिचय-
लेखक पत्रकार एवं निजी विद्यालय में प्राचार्य हैं