नीरज त्यागीग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश )
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जिंदगी भर जिंदगी के बिखरे तिनके चुनता रहा।
बिगड़ते हुए ख्वाबो को यूँ ही बुनता चला गया।।
भरे हुए जख्म जिन पर नमक लगाया लोगो ने,
उन छिले जख्मो को मरहम लगाता चला गया।
सपने जो पेड के पत्तो से ओश की बूंदों सा टपक रहे थे।
उन बूंदों को अपनी हथेली में एकत्रित करता चला गया।।
मालूम ना था मुरझाए हुए फूलों को भी बचाना होगा।
गुलदस्ते में फिर शुखे हुए लम्हो को भी लगाना होगा।।
जीवन का सार जीवन निकलने के बाद समझ मे आया।
जीवन में ना जाने कब कौन सा लम्हा काम आ जायेगा,
हर बिता लम्हा कभी ना कभी अपनी कीमत दिखलायेगा।।
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