जब अर्द्धनग्न शरीर पर कोड़े बरसाएं जा रहें हो, लोहे के सरिये से पीटा जा रहा हो, चमड़े के पट्टे स्त्री की देह नोचते हुए उसे अपराधी सिद्ध करने पर आमादा हो, गुनाह और बेगुनाही के बीच सच्चाई झूल रही हो, जब स्त्री की चीखें उसे विवशता की ओर धकेल रही हो, ऐसे समय में कौन होगा जो वरदान देगा? ऐसे समय में अभिशाप का होना लाजमी है। और इस सच को निर्भीकता के साथ स्वीकार कर बोल देना ही एक सनातनी साध्वी की पहचान माना जाएगा।
‘सत्य के अनुप्रयोग’ पुस्तक के माध्यम से महात्मा गांधी ने भी सच स्वीकारें, बेबाक बोला, निर्भीकता से लिखा इसीलिए वो महात्मा गाँधी कहलाए और आज साध्वी प्रज्ञा भी उसी राह पर अपने साथ हुई यातना के दर्द की आह में बोल रही है। उसमें सामर्थ्य रहा होगा तभी तो जानते हुए उसने सच कहा, सच बोला। और रही बात हेमंत करकरे की तो उन्होंने 26/11 के दौरान अपनी कर्तव्य परायणता साबित करके दुर्दान्त आतंकियों से राष्ट्रवासियों को बचाने का जतन किया औऱ कसाब को पकड़वाया इससे उनके कई गुनाहों को देश ने यह सोच कर तिलांजलि दे दी कि उन्होंने अन्तोगत्वा राष्ट्र के लिए कुछ ऐसा किया जिससे उनकी ये अच्छाई उनके गुनाहों को मिटा गई तो करकरे भी हुतात्मा और शहीद ही मानें गए। आखिर हर व्यक्ति में कुछ न कुछ ऐब होते है, किसी के दिख जाते है, किसी के उजागर कर दिए जाते है और किसी-किसी के ताउम्र दफन हो जाते है। करकरे का यह रूप जो साध्वी प्रज्ञा के साथ घटित हुआ उसे भी स्वीकारना चाहिए। हो सकता है राष्ट्रवासी प्रतिक्रिया न दे, किन्तु गुनाहों का देवता कुछ तो सजा देता ही होगा, क्योंकि हम भारतीय है और भारत की परंपराएं हमें गुनाहों से डरने के लिए ईश्वरीय सत्ता के भय और कर्म फल की चिंता का मौलिक अधिकार भी देती है। यदि ऐसा न होता तो भारत सवा सौ करोड़ अपराधियों का राष्ट्र बन चुका होता।
कड़वा सच तो यह भी है कि जिसने यातना भोगी होगी, जिसने सहा होगा वही उसकी गवाही देगी। ऐसे समय में मुँह से अभिशाप ही निकला करते है। सामने जब यातना का यक्ष मुँहबाहें खड़ा होता है तो वरदान के श्वेत कपोत की हिम्मत नहीं होती कि वो कुछ कह दे। ‘शाप’ जैसी सनातनी व्याख्या साधु-साध्वी परंपराओं का अभिन्न अंग है। जब हम आशीर्वाद, वरदान जैसी अवधारणाओं को सहज स्वीकार करते है तो हमें अभिशाप जैसी शक्ति को भी स्वीकारना होगा। जैसे दिन को स्वीकार करते है तो आप रात के वजूद से कैसे इंकार कर सकते है। वरदान के लिए मंदिर-मस्जिद दौड़ते है तो अभिशाप भी इसी व्यवस्था का अंग है।
यदि अब भोपाल के सियासी सफर की ओर नज़र डालें तो यह विगत ३ दशकों से कांग्रेस का न जीत पाने वाला अभेद किला बन चुका है। जिसमें सेंध मारने की कांग्रेस की इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई इसलिए इस बार प्रयास के तौर पर दिग्विजयसिंह को मैदान सँभालने के लिए भेज दिया है। दूसरी तरफ दिग्गी के कार्यकाल के प्रभाव के कारण यातना भोगने वाली साध्वी प्रज्ञा को बीजेपी ने उम्मीदवार बना कर मैदानी के साथ-साथ जुबानी जंग को भी हवा दे दी है। वैसे साध्वी के बयानों को देखा जाएं और आंकलन किया जाए तो भोपाल को एक ऐसा नेता मिल सकता है जो सत्यनिष्ठ है, जो भोगा वही तो कहा, जो किया उसे ही तो स्वीकार किया। खैर साध्वी प्रज्ञा सियासत की कमजोर और कच्ची खिलाड़ी है क्योंकि सियासत में मुँह के शब्दों को चासनी में लपेट कर मारा जाता है और साध्वी प्रज्ञा उन शब्दों को दो टूक सीधे प्रहारित कर रही है। एक तरह से देखा जाए तो लाग-लपेट की बीमारी से दूर एक सत्यनिष्ठ, स्पष्टवादी और ईमानदार नेतृत्व का मिलना भोपाल का सौभाग्य होगा। क्योंकि दिग्विजय से कौन अपरिचित है। दस वर्ष सर्वनाश के सबने झेले है, हर रात मोमबत्ती और लालटेन के साथ गुजरती हुई हर आँख ने देखी है। और घोटालें, चम्मच का चलन किससे अछूता है।
समझ को विकासशील से विकसित की तरफ आगे बढ़ाना है तो भोपाल को निर्भीकता से उसे चुनना होगा जिसके पास विजन हो, सत्य हो, ईमानदारी हो, परिवारवाद से अछूता हो, भोपाल के समग्र विकास हेतु परियोजना हो, और सियासी दाँवपेंचों की बजाए वो सीधे संवाद करना जानता हो। यदि कोई इस बात जनता को डराएं की हिन्दू संत मुस्लिमों पर अत्याचार करेगा या मुस्लिम व्यक्ति हिन्दुओं की बखिया उखाड़ देगा तो वो व्यक्ति स्वयं अनपढ़ और गंवार है। क्योंकि हिंदुस्तान ने महावीर और गौतम के समकालीन भरत का शासन भी देखा है तो अकबर बादशाह की बादशाहत भी।
वर्तमान समय में भारत के नवनिर्माण के लिए मतदाताओं को जातिगत समीकरणों से परे एक विकसित और परिपक्व सोच के साथ राष्ट्र के लिए आगे आना होगा। भोपाल की सियासत का एक अध्याय यह भी है कि यहाँ जुमलेबाजी नहीं बल्कि ठोस परियोजनाओं ने ही कार्य किया है। शिक्षा के व्याकरण से देखें तो भोपाल का मतदाता शिक्षित है, नए भोपाल में पढ़े-लिखे मतदाताओं का हस्तक्षेप है। वैसे भी भोपाल को ‘बाबू सिटी’ कहा जाता है, मतलब अधिकारीवर्ग की बहुलता और शिक्षा के सुव्यवस्थित आवरण के मद्देनज़र जागरूकता का प्रभाव है। इसीलिए वरदान और अभिशाप के बीच सियासत को उलझा कर मतदाताओं को गुमराह करने वालों से भोपाल सावधान रहें और अपना सत्यनिष्ठ नेता चुने।
#डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’
परिचय : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ इन्दौर (म.प्र.) से खबर हलचल न्यूज के सम्पादक हैं, और पत्रकार होने के साथ-साथ शायर और स्तंभकार भी हैं। श्री जैन ने आंचलिक पत्रकारों पर ‘मेरे आंचलिक पत्रकार’ एवं साझा काव्य संग्रह ‘मातृभाषा एक युगमंच’ आदि पुस्तक भी लिखी है। अविचल ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा है। इन्होंने आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता का आधार आंचलिक पत्रकारिता को ही ज़्यादा लिखा है। यह मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील में पले-बढ़े और इंदौर को अपना कर्म क्षेत्र बनाया है। बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (कम्प्यूटर साइंस) करने के बाद एमबीए और एम.जे.की डिग्री हासिल की एवं ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियों’ पर शोध किया है। कई पत्रकार संगठनों में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारियों से नवाज़े जा चुके अर्पण जैन ‘अविचल’ भारत के २१ राज्यों में अपनी टीम का संचालन कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए बनाया गया भारत का पहला सोशल नेटवर्क और पत्रकारिता का विकीपीडिया (www.IndianReporters.com) भी जैन द्वारा ही संचालित किया जा रहा है।लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं।