बिहार कथा…..
पूरी दुनिया में लोगों को इन्साफ उनकी भाषा में ही मिलता है। हमारे देश में भी राजाओं – महाराजाओं के जमाने से यही होता रहा है। अगर भारत पर विदेशी सत्ता कायम नहीं होती तो अब भी यही हो रहा होता। पर शायद हम दुनिया जैसे नहीं हैं। विदेशी दासता से मुक्त होने पर भी हम अपने तंत्र को विदेशी भाषा से मुक्त नहीं करवा सके। हमारी न्याय व्यवस्था की बुनियाद उस भाषा पर खड़ी है जिसे समझनेवाले देश में मुट्ठी भर लोग हैं जो अंग्रेजी की मदद से लोगों की जेबें खाली कर रहे हैं।
न्याय के लिए यह बहुत जरूरी है कि किसी मामले में वादी और प्रतिवादी को यह पता तो लगे कि उसके बारे में क्या बहस चल रही है, उसकी ओर से जो कागजात दाखिल किए गए हैं, उनमें क्या लिखा है और अंत में क्या फैसला आया ? लेकिन यहाँ सब वकील भरोसे, अंग्रेजी भरोसे । आप अंग्रेजी के महापंडित नहीं तो यह आपकी परेशानी , व्यवस्था को इससे कोई सरोकार नहीं। अंग्रेजी का दंभ भरनेवाले बहुत से वकीलों की भी अंग्रेजी में हालत कोई बहुत अच्छी नहीं पर न्याय व्यवस्था में अंग्रेजी का वर्चस्व निर्विवाद है। मूल प्रश्न यह है कि देश की व्यवस्था देश की जनता के लिए है या देश की जनता उस व्यवस्था के लिए है, जो उसके अनुकूल नहीं ?
निचली अदालतों में तो जनभाषा को जगह मिली है। कहाँ और कितनी ? यह दूसरा प्रश्न है। लेकिन आजादी के 70 वर्ष बाद आज भी देश की भाषाएं जो भारत संघ की राजभाषा या राज्यों की राजभाषाएँ हैं, वे आज भी प्रवेश की आस लिए बड़ी -बड़ी अदालतों के बाहर ठिठकी सी खड़ी हैं। देश की इन बड़ी -बड़ी अदालतों में यानी सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में इस देश के लोगों को देश की भाषा में इंसाफ क्यों नहीं मिलता ? इसका कोई ठीक – ठाक जवाब कभी इस देश की जनता को नहीं मिल पाया। हालत यह है कि अब तो इस देश की जनता इसे अपनी नियति मानने लगी है।
अगर दुनिया के किसी अन्य देश में जा कर यह बताया जाए कि भारत में ऐसी न्याय व्यवस्था है कि जिस व्यक्ति के बारे में अदालत में मुकदमा चल रहा है, उसे ही नहीं पता लगता कि वकील आपस में क्या बहस कर रहे हैं और उसके बारे में किस बात को किस ढंग से पेश किया जा रहा है, तो शायद दुनिया भारतवासियों की सोच और भारत की स्वतंत्रता पर सवाल ही खड़े करेगी । लेकिन यह एक ऐसा बहुत बड़ा सच है कि आज भी उच्चतम और उच्च न्यायालयों में जनता न्याय के लिए लगभग पूरी तरह अंग्रेजी पर निर्भर है। एक और बात यह भी कि किसी भी व्यक्ति को अधिकार है कि वह बिना वकील भी अपना पक्ष अदालत में रख सके। लेकिन यह अधिकार कुछ उन मुट्ठी भर लोगों तक ही सीमित हो जाता है जिनका अंग्रेजी पर पूर्ण अधिकार है। यहाँ भी अंग्रेजी की अनिवार्यता न्याय के लिए अपने पक्ष को रखने के अधिकार को सीमित करती है।
महात्मा गांधी, जिन्हें हम देश का राष्ट्रपिता मानते हैं, वे लगातार यह कहते रहे कि ‘इससे बड़ी नाइन्साफी क्या हो सकती है कि मुझे अपने ही देश में अपनी भाषा में न्याय न मिले’ । देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद को सर्वोच्च माना गया है। संसदीय राजभाषा समिति द्वारा सिफारिश की गई है कि अब समय आ गया है कि उच्चतम न्यायालय में हिंदी का प्रयोग किया जाए। विधि मंत्रालय की स्थाई समिति द्वारा भी यह कहा गया है कि राज्यों की मांग के अनुसार उन राज्यों में स्थित उच्च न्यायलयों में राज्यों की राजभाषाओं में न्याय व्यवस्था की जानी चाहिए। जहाँ तक जनता की बात है, देश की जनता के लिए इससे अधिक खुशी की बात क्या हो सकती है कि न्यायालयों में वे भी अपनी भाषा में अपनी बात रख सकें। वकील जिन कागजों पर उनके हस्ताक्षर ले रहे हैं, उनमें क्या लिखा है यह भी उन्हें पता लग सके और वकीलों द्वारा की जा रही बहस को वे भी समझ सकें। यह तो सभी के लिए खुशी की बात होगी।
लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी ऐसा क्या है कि एक जनतांत्रिक देश में जनता, जनता के प्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्था,’संसद’ की सिफारिशों, राष्ट्रपिता की भावनाओं, राष्ट्रपिता के संदेश और स्वभाविक न्यायिक व्यवस्था की अपेक्षाओं के बावजूद इस देश में अभी भी जनता के लिए देश की शीर्ष अदालतों में जन भाषा में न्याय के दरवाजे खुल नहीं पा रहे।इतने महत्वपूर्ण विषय पर मीडिया में चर्चा न होना भी कहीं न कहीं बहुत से प्रश्न खड़े करता है ।
अब जबकि राष्ट्राध्यक्ष देश के माननीय राष्ट्रपति जी सार्वजनिक रुप से और उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश और भारत के विधि मंत्री की उपस्थिति में यह कह चुके हैं कि जनता को जनता की भाषा में निर्णय मिलना चाहिए तो अब कौन सी बाधा बची है ? ऐसी कौनसी महाशक्ति है जो जनतंत्र में जनता की भावनाओं, देश की संसद, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और देश के राष्ट्रपति के संदेश और मंतव्य के बावजूद उच्च स्तर पर न्यायपालिका में जनभाषा को रोक रही है ?
आखिर वे कौन हैं जो जनता, जनतांत्रिक व्यवस्था और संवैधानिक व्यवस्था की सर्वोच्च संस्थाओं और पदाधिकारियों से भी ऊपर हैं ? अगर आज कोई जनभाषा में जनता को न्याय दिए जाने की बात को आजादी की दूसरी लड़ाई कहता है, तो क्या यह अनुचित है ? देश के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सार्वजनिक रूप से जनहित और जनतंत्र के हित में सार्वजनिक रूप से दिए गए वक्तव्य के परिप्रेक्ष में भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों को पूरी गंभीरता से विचार मंथन करते हुए निर्णायक पहल करनी चाहिए। यह विषय केवल भाषा का नहीं बल्कि जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा, न्याय व्यवस्था, स्व – तंत्र, न्याय हेतु जन द्वारा जनभाषा या स्वभाषा की अपेक्षाओं से जुड़ा है। स्वभाषा को स्व-तंत्र के साथ जोड़ कर देखने की आवश्यकता है। जिसे समय – समय पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सहित अनेक स्वतंत्रता सेनानियों , शीर्ष नेताओं, विचारकों तथा महामहिम राष्ट्रपति मा. श्री रामनाथ कोविद द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।
मेरा मत है कि देश के राष्ट्रपति मा. श्री रामनाथ कोविद द्वारा अभिव्यक्त विचारों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में लेते हुए इस पर राष्ट्रव्यापी गंभीर बहस होनी चाहिए। और हाँ, अंग्रेजी मीडिया को भी अपने भाषाई सरोकारों से उपर उठ कर राष्ट्रीय सरोकारों के नजरिए से न्याय की भाषा के मुद्दे को न्याय संगत ढंग से उठाना चाहिए । वे तमाम लोग जिनका न्याय से सरोकार है, स्वभाषा से सरोकार है और जनतांत्रिक मूल्यों से सरोकार है, यह उनके इस दिशा में आगे बढ़ने का सही समय है।
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई से साभार
#डॉ.एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य