सम्वेदनाओं का ज्वार यदि कविता का द्वार पा जाए तो उसकी अभिव्यक्ति व्यष्टि से समष्टि की ओर हो जाती है। जब भी मानव मात्र अपने मन के उहापोह ,अंतर्द्वंद ,अचेतन के सन्ताप व अधूरी इच्छाओ को प्रकट नही कर पाता या उनके लिए सुपात्र नही खोज पाता तो उसका सेतु बनता है काव्य।
महादेवी जी को जितना मेने पढा व गुना है उनमें संवेदनात्मक अनुभूतियो का धरातल बड़ा ही मजबूत पाया है। जब वे किसी गिलहरी को गिल्लू और हिरनी को सोना या गाय को गौरा और कुतिया को नीलू कह कर उनके साथ जुड़े अनुभवो को अपने परिवार की भांति चित्रित करती है तो वे एक मातृवत्सला बनकर अपने जीवन की उस कमी को भी पूरा कर लेती हैं जिसे नारी की पूर्णता का पर्याय माना जाता है।मातृत्व की अनुभूति का वही रंग जो यशोदा को वात्सल्य रस की देवी मानता है और सूर को उसका महान गायक।
महादेवी जी के ये संस्मरणात्मक रेखचित्र न केवल मनोभावो की निर्झरणी को प्रवाहित कर मन के अनन्त स्रोत्र से फूटते जान पड़ते हैं वरन पाठको को भी उसी धरातल पर लेजाकर खड़ा कर देने मे पूर्णतः सक्षम सिद्ध होते हैं।
महादेवी वर्मा ने लिखा है- ‘कला के पारस का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं।
जब वे “घीसा” की कहानी को मार्मिक रूप में अनुभूत करती है उनका शिक्षक रूप एक आदर्श रूप में प्रस्तुत होता है।आज भी गुरु शिष्य का वह अनोखा सम्बन्ध अंतर को मथने के लिए पर्याप्त सामग्री लिए हुए है।
रामा सा सेवक की सेवा का प्रतिदान देना हो या साग बेचने वाले अंधे अलोपी की सरलता के प्रति मुग्धतता या फिर भगतिन की प्रगल्भता के प्रति आसक्ति हो या कुम्हार बदलू के लिए चिंता हर रूप में महादेवी जी का कोमल हृदय भावनाओ व सरसता के सागर के रूप में लहरित हुआ है।
महादेवी जी ने चाहे व्यावहारिक रूप से स्त्रीत्व के उन सभी रूपो को न जिया हो जो नारी जीवन की पूर्णता के प्रतीक रूप में समाज मे मान्य हैं किंतु उनका साहित्य उनके अंतस के हर उस प्रच्छन्न रूप को न केवल पूरी तरह जीने का माध्यम ही बना है वरन उस पक्ष को पूरी प्रबलता व मजबूती से अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम रहा है।
जब वे अपनी कविताओं में अलौकिक के प्रति प्रेम प्रकट करती है तो विरह गीतो में जैसे”तुम्हे बांध पाती सपनो में “,”कौन तुम मेरे हृदय में”,”विरह का जलजात”में उनका प्रेयसी हृदय उद्घाटित हो उठता है ।जब वे लिखती है “बीन भी हूँ तुम्हारी रागिनी भी हूँ “और” तुम मुझमे फिर परिचय क्या “वहां प्रेम की पराकाष्ठा एकात्मता की उन्नत अभिव्यक्ति देखने को मिलती है । महादेवी जी का प्रेमी हृदय अद्वेत भाव से प्रेम को स्वीकार करता है और उस प्रेम को वो जी लेती है अपनी कविताओं में।
सामाजिक सरोकारों के रूप में महादेवी जी का अनन्त देशभक्त का रूप भी “बन्दनी जननी “व” फिर पूण्य भूमि बनाइये”जैसे कविताओ में देखने को मिलता है।
इस तरह महादेवी जी ने अपने काव्यात्मक जीवन मे सम्पूर्ण जीवन को भरपूर जिया है।
जहाँ जिस भाव का अवकाश मिला उसे पूर्ण रूपेण प्रस्तुत कर वास्तविक साहित्यकार की कसौटी को आप निर्मित कर पाई हैं। इसलिए तो उनका काव्य ,साहित्य सब कुछ पूर्ण पूर्ण बन पड़ा है।कहि भी कुछ छूटता नही दिखाई देता।
यद्यपि महादेवी जी ने न उपन्यास लिखे न ही नाटक फिर भी गद्य को कवि की कसौटी मनाने वाले समालोचकों ने उन्हें एक उत्कृष्ठ गद्यकार भी माना है ।यद्यपि उनका गद्य लेखन काव्यात्मक बन पड़ा है इसमें कोई संदेह नही है।
समवेत दृष्टि से देखा जाए तो महादेवी जी का रचनाकर्म कहि भी काल्पनिक व रोमानी भावबोध का नाटकीय संकलन नही जान पड़ता ।आपके काव्य में संस्मरणों में निबन्धों में हर जगह जीवन की सच्चाई और वास्तविक अनुभूति आदि से अंत तक बूँद बूँद टपकती है मधु की भांति। जिसमे मिठास भी है तरलता भी और ठहराव भी ।
नारी जीवन के हर पहलू को अपनी पूरी सच्चाई के साथ प्रकट करती महादेवी सही अर्थ में अपने नाम को सार्थक सिद्ध करती हैं।
#विजयलक्ष्मी जांगिड़
परिचय : विजयलक्ष्मी जांगिड़ जयपुर(राजस्थान)में रहती हैं और पेशे से हिन्दी भाषा की शिक्षिका हैं। कैनवास पर बिखरे रंग आपकी प्रकाशित पुस्तक है। राजस्थान के अनेक समाचार पत्रों में आपके आलेख प्रकाशित होते रहते हैं। गत ४ वर्ष से आपकी कहानियां भी प्रकाशित हो रही है। एक प्रकाशन की दो पुस्तकों में ४ कविताओं को सचित्र स्थान मिलना आपकी उपलब्धि है। आपकी यही अभिलाषा है कि,लेखनी से हिन्दी को और बढ़ावा मिले।