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पुस्तक समीक्षा
पुस्तक- बुलबुले सी जिंदगी
लेखक – सुरेश चौधरी ‘इंदु’
प्रकाशक – शुक्तिका प्रकाशन, कोलकाता
कीमत – रू. 125 मात्र
लगभग डेढ़ दर्जन पुस्तकों के लेखक सुरेश चौधरी ‘इंदु’ जी के बहुआयामी व्यक्तित्व का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इन्होंने ग्रेजुएशन साइंस स्ट्रीम से किया और फिर चार्टर्ड अकाउंटेंट बन गए। कॉमर्स और साइंस अध्ययन की दो अलग धाराएं हैं। अगर बोलचाल की आम भाषा में कहें तो उत्तर और दक्षिण. इसलिए बहुत कम लोग आपको ऐसे मिलेंगे जो ऐसा कर पाते हैं. बिल्कुल ऐसी ही विविधता इनके लेखन में है अब तक ये मूल रूप से अध्यात्म, धर्म और दर्शन पर लिखते रहे हैं, देशाटन पर भी लिखा है, छंदबद्ध कविताएं लिखीं हैं और अब छंद मुक्त कविताओं का संग्रह पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया।
इस पुस्तक को पढ़ने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि अगर इस पुस्तक को आप खालिस मनोरंजन या टाइमपास के लिए पढ़ रहे हैं, तो फिर यह आपके लिए नहीं है। यह पुस्तक उन पाठकों के लिए है जो एकरसता से ऊब चुके हैं। साहित्यजगत में कविता के नाम पर जो कुछ उबड़खाबड़ परोसा जा रहा है, उससे अलग कुछ चाहते हैं। जो लोग अपने विचारों में नयापन लाना चाहते हैं, विचारों को मंथन के लिए उकसाना चाहते हैं,अपने शब्द भंडार को समृद्ध करना चाहते हैं और हमारी समृद्ध भाषा परंपरा से रूबरू होना चाहते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक की कविताएं हवा के ताजा झोंके की मानिंद हैं. कवि ने भले ही कविताएं छंदमुक्त लिखी हैं लेकिन कविताओं में स्वाभाविक लय विद्यमान है, जो कवि के कला कौशल का कमाल है।
प्रारंभ में श्रीकृष्ण वंदना है, जो मनोहारी और मनन करने योग्य है। कविगुरू रवींद्रनाथ ठाकुर को समर्पित दूसरी कविता भी गुनगुनाने लायक है। इसके बाद तीन कविताएं मां को समर्पित हैं, इस बीच एक कविता बाबूजी को समर्पित है। इसके बाद एक विशाल फलक पर विविध विषयों की कविताएं किसी रंगोली की तरह सजाई गई है। जीवन के विभिन्न पहलुओं और विभिन्न अवस्थाओं पर कवि ने मर्मस्पर्शी कविताएं लिखी हैं। जिनमें देशभक्ति , नारी विमर्श, रिश्ते, सामाजिक विसंगतियाँ, जीवन के सम-विषम पहलू, हर्ष-विषद, आह्लाद- अवसाद और उमंग-हताशा सब कुछ है. प्रकृति और जीव भी हैं.. और खत व भाषा भी.
इनकी ‘खत’ कविता में इन पंक्तियों की खूबसूरती और इनमें समाहित संदेश देखिए –
खतों का मोल/ कितना है क्या है/ वो क्या जाने जो/ ईमेल,व्हाट्सऐप की दुनिया में जीत है/ डाकिए का इंतजार/ खत का मिलना/ हाथों का थरथराना/ दिल की धड़कनों की तीव्रता/ गुलाबी नशा/ कैसे चढ़ता है/ कैसे उतरता है।
‘जी हां, मैं प्रेम लिखता हूं’ में कवि ने प्रेम की बहुप्रचलित और संकुचित परिभाषा को भंग करते हुए इसे एक नया आयाम दिया है। कवि ने प्रेम लिखा है ….लेकिन मां के वात्सल्य का, मेहनतकश किसान की पत्नी का, बहन के प्यार का प्रेम लिखा है। कितना गहरी पंक्तियां हैं, जो अंतर को छूती हैं-
मेरा प्रेम कोई विषय नहीं प्रदर्शन का/ मेरा प्रेम विशुद्ध चिंतन है दर्शनका/ मेरा प्रेम गोपी गीत सा पवित्र है/ मेरा प्रेम मीरा का भक्त चरित्र है।
‘चरवैति चरवैति’ में कवि ने प्रकृति व प्रेम के सौंदर्य को चंद पंक्तियों से उभारा है। ‘बांस के जंगल’ में बांस का अचार आपको मुंह में पानी ला देगा। अध्यात्म और आस्था के रस से ओतप्रोत ‘मैं और ईश्वर’ की इन पंक्तियों की सुंदरता का रसास्वदान कीजिए –
ईश्वर से पूछा मैंने/ आपका अस्तित्व/ और मेरा अस्तित्व/ क्या अलग-अलग है/ हम तो अन्तर्निहित हैं…।
‘मरते अन्नदाता’ में किसानों की करूण कथा है, ‘दामिनी की मृत्यु पर’ में नृशंस बलात्कार पर रोष है, ‘हिंदी दिवस’ में कवि ने आज की युवा पीढ़ी को संदेश दिया है-
शर्म क्यूं आती है/ निज भाषा बोलने में/ निज वेशभूषा ओढ़ने में/…
आगे की पंक्तियों में- संस्कृत जननी है सब भाषाओं की/ एक वट वृक्ष है/ हिंदी, तमिल, बंग्ला इत्यादि/ सब शाखाएं विशाल/ विश्व की जीवित सबसे पुरानी भाषा बेमिसाल/ अरे देवधरा पर जन्म लेने का/ कुछ तो कर्ज चुकाओ/ देवलिपि को तो न ठुकराओ।
‘क्या यही मनुजता है’, ‘आज का भारत’, ‘कब नीलकंठ बन पुनः आवोगे’, ‘कहानी मिट्टी और कुम्हार की’, ‘वक्त जर्जर है’, ‘परिवर्तन मुझे खुद में ही लाना होगा’, ‘जीवन की मरू मरीचिका’, आदि बेहद विचारोत्तेजकर कविताएं हैं। ‘वंदेमातरम’, ‘ध्वज बंदना’, ‘शहीदे आजम’ ‘गणतंत्र दिवस’ जैसी देशभक्तिपरक कविताएं भी इस संग्रह में समाहित है।
‘खिड़कियां’ और ‘कोहरे से लिपटी जिंदगी’ में कवि की व्याकुलता है। ‘संबंधों की प्रगाढ़ता’ में कवि का कोमल हृदय बेटी की विदाई पर आर्तनाद कर उठता है-
बेटी बेटी ही होती है/ धन पराया/ विदा होती है/ लगता है शल्य क्रिया से/ हृदय दो हिस्सों में बांट दिया गया है/ एक लरजता है, एक आह भरता है/ एक दुलार करता है, एक सुप्त अश्रुबहाता है/
एक और कविता है ‘बेटियां’ जहां कवि ने अपना स्नेह उड़ेला है-
बाप के आंखों का तारा होती/ कहते बेटे तो एक घर संभालते/ बेटियां तो यह घर और वह घर/ दोनों के दिल की साम्राज्ञी होती।
‘ब्रह्मज्योति से मिलन को’ अध्यात्म और दर्शन का अनूठा फ्यूजन है। ‘हजार के नोट पर लटके बापू’ उल्लेखनीय सामायिक कविता है।जिसमें मौजूदा दौर की विसंगतियों पर प्रकाश डाला गया है.
महिलाओं से संबंधित ‘तोड़ती पत्थर’, ‘हर युग में नारी की एक ही कहानी है’, ‘टेस्सी थॉमस’, ‘मैंने देखा काम करती अबलाओं को’ कविताएं बार-बार पढ़ने के योग्य हैं।
‘होते घाटी में हमलों पर आक्रोश’ झकझोरने वाली कविता है। ‘साबुन के बुलबुले सी जिंदगी’ में कवि ने जीवन के उतार चढ़ाव और क्षण-भंगुरता पर बहुत गहरी बात लिखी है-
उड़ते साबुन के बुलबुले सी जिंदगी, झांक कर देखा तो पाया सतरंगी झलक- क्यों इतना दर्द लेकर जी रहे हैं हम/ क्यूं नफरत/ संजोये जी रहे हम
संग्रह की कविताएं बहुआयामी और बहुरंगी हैं। संवेदनाओं को उद्घाटित करती हैं। जीवन की अनुभूतियों का स्पष्ट और विशिष्ट चित्रण हैं लेकिन आत्ममुग्धता कहीं नहीं है। इन कविताओं में जीवन का सौंदर्य भी है, तो विषमताएं भी है। अपने कथ्य और शिल्प के अनुसार ढाल कर सुरेशजी इन्हें अतुलनीय बना दिया है।
आवरण अत्यधिक आकर्षक है और कीमत बहुत कम है। पुस्तक की सबसे बड़ी सफलता यह है कि कवि के अंतर्मन से जो भाव प्रस्फुटित हुए है वे बिना किसी विशेष प्रयास के ही पाठक के अंतर्मन तक पहुंचने में सफल रहे हैं। भाषा क्लिष्ट नहीं समृद्ध और रूचिकर है। हाँ! अगले संस्करण में प्रूफ की गलतियों पर ध्यान देना जरूरी है।आवरण बनाने में सुरेश सारस्वत जी (पूर्व महाप्रबन्धक,नेशनल इनश्योरेन्स,मुम्बई क्षेत्र)ने खासी मेहनत की है अपनी ऊँची कल्पनाशक्ति का परिचय दिया है जो स्पष्ट नजर आता है।
समीक्षक –शिखर चंद जैन
मोटिवेशनल राइटर, कंटेंट प्रोवाइडर,
राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित फीचर लेखक
समाज्ञा हिंदी दैनिक में फीचर सलाहकार
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