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जब मृत्यु ही एक कटु सत्य है,
फिर जीने की क्यूँ करते अभिलाषा।
आज देखा ख्वाबों पे मंडराते,
क्या होती है इसकी परिभाषा।
जब-तक चलती है साँस मेरी,
चल कर कुछ जीवन से आशा,
उठो कर्तव्य कुछ कर दो सुसज्जित,
अंत बाद तेरा भी लगे कोई है प्यासा।
चलते-चलते विराम-चिन्ह पे,
क्यूँ होती है और जीने की जिज्ञासा।
करता हूँ कर्तव्य जब तन-मन से,
मानव कहता है उसके बिना मैं हूँ पिपासा।
ये नाश मेरा जो सर्वथा हकीकत,
रखनी है फिर से क्या कोई नई भाषा।
#प्रभात कुमार दुबे (प्रबुद्ध कश्यप)
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