अमृता प्रीतम की पुण्यतिथि 31 अक्टूबर पर विशेष………….
अमृता प्रीतम की रचनाओं को पढ़कर हमेशा सुकून मिलता है. शायद इसलिए कि उन्होंने भी वही लिखा जिसे उन्होंने जिया. अमृता प्रीतम ने ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को अपने शब्दों में पिरोकर रचनाओं के रूप में दुनिया के सामने रखा. पंजाब के गुजरांवाला में 31 अगस्त, 1919 में जन्मी अमृता प्रीतम पंजाबी की लोकप्रिय लेखिका थीं. उन्हें पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है. उन्होंने तक़रीबन एक सौ किताबें लिखीं, जिनमें उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट भी शामिल है. उनकी कई रचनाओं का अनेक देशी और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ. अमृता की पंजाबी कविता अज्ज आखां वारिस शाह नूं हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बहुत प्रसिद्ध हुई. इसमें उन्होंने वारिस शाह को संबोधित करते हुए उसके वक़्त के हालात बयां किए थे.
अज्ज आखां वारिस शाह नूं कित्थों क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरक़ा फोल
इक रोई सी धी पंजाब दी, तू लिख-लिख मारे वैण
अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां तैनू वारिस शाह नू कहिण
ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में उन्हें पद्म विभूषण से नवाज़ा गया. इससे पहले उन्हें 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. उन्हें 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत किया गया. अमृता को 1988 में अंतरराष्ट्रीय बल्गारिया वैरोव पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उन्हें 1982 में देश के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से नवाज़ा गया. अमृता प्रीतम जनवरी 2002 में अपने ही घर में गिर पड़ी थीं और तब से बिस्तर से नहीं उठ पाईं. उनकी मौत 31 अक्टूबर, 2005 को नई दिल्ली में हुई.
अमृता प्रीतम ने रसीदी टिकट में अपनी ज़िंदगी के बारे में लिखा है, यूं तो मेरे भीतर की औरत सदा मेरे भीतर के लेखक से सदा दूसरे स्थान पर रही है. कई बार यहां तक कि मैं अपने भीतर की औरत का अपने आपको ध्यान दिलाती रही हूं. सिर्फ़ लेखक का रूप सदा इतना उजागर होता है कि मेरी अपनी आंखों को भी अपनी पहचान उसी में मिलती है. पर ज़िंदगी में तीन वक़्त ऐसे आए हैं, जब मैंने अपने अंदर की सिर्फ़ औरत को जी भर कर देखा है. उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अंदर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया. वहां उस वक़्त थोड़ी सी भी ख़ाली जगह नहीं थी, जो उसकी याद दिलाती. यह याद केवल अब कर सकती हूं, वर्षों की दूरी पर खड़ी होकर. पहला वक़्त तब देखा था जब मेरी उम्र पच्चीस वर्ष की थी. मेरे कोई बच्चा नहीं था और मुझे प्राय: एक बच्चे का स्वप्न आया करता था. जब मैं जाग जाती थी. मैं वैसी की वैसी ही होती थी, सूनी, वीरान और अकेली. एक सिर्फ़ औरत, जो अगर मां नहीं बन सकती थी तो जीना नहीं चाहती थी. और जब मैंने अपनी कोख से आए बच्चे को देख लिया तो मेरे भीतर की निरोल औरत उसे देखती रह गई.
दूसरी बार ऐसा ही समय मैंने तब देखा था, जब एक दिन साहिर आया था, उसे हल्का सा बुख़ार चढ़ा हुआ था. उसके गले में दर्द था, सांस खिंचा-खिंचा था. उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने विक्स मली थी. कितनी ही देर मलती रही थी, और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े-खड़े मैं पोरों से, उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले-हौले मलते हुए सारी उम्र ग़ुजार सकती हूं. मेरे अंदर की सिर्फ़ औरत को उस समय दुनिया के किसी काग़ज़ क़लम की आवश्यकता नहीं थी.
और तीसरी बार यह सिर्फ़ औरत मैंने तब देखी थी, जब अपने स्टूडियो में बैठे हुए इमरोज़ ने अपना पतला सा ब्रश अपने काग़ज़ के ऊपर से उठाकर उसे एक बार लाल रंग में डुबोया था और फिर उठकर उस ब्रश से मेरे माथे पर बिंदी लगा दी थी. मेरे भीतर की इस सिर्फ़ औरत की सिर्फ़ लेखक से कोई अदावत नहीं. उसने आप ही उसके पीछे, उसकी ओट में खड़े होना स्वीकार कर लिया है. अपने बदन को अपनी आंखों से चुराते हुए, और शायद अपनी आंखों से भी, और जब तक तीन बार उसने अगली जगह पर आना चाहा था, मेरे भीतर के सिर्फ़ लेखक ने पीछे हटकर उसके लिए जगह ख़ाली कर दी थी.
मशहूर शायर साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम को लेकर कई क़िस्से हैं. अमृता प्रीतम ने भी बेबाकी से साहिर के प्रति अपने प्रेम को बयां किया है. वह लिखती हैं, मैंने ज़िंदगी में दो बार मुहब्बत की. एक बार साहिर से और दूसरी बार इमरोज़ से. अक्षरों के साये में जवाहर लाल नेहरू और एडविना पर लिखी एक किताब का हवाला देते हुए वह कहती हैं, मेरा और साहिर का रिश्ता भी कुछ इसी रोशनी में पहचाना जा सकता है, जिसके लंबे बरसों में कभी तन नहीं रहा था, सिर्फ़ मन था, जो नज़्मों में धड़कता रहा दोनों की.
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिए आता था, तो जैसे मेरी ही ख़ामोशी से निकला हुआ ख़ामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था. वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था. और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े-छोटे टुकड़े कमरे में रह जाते थे. कभी, एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी, जो तय नहीं होती थी. तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था. उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं. वह कहती हैं-
मेरे इस जिस्म में
तेरा सांस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा
उम्र की सिगरेट जल गई
मेरे इश्क़ की महक
कुछ तेरी सांसों में
कुछ हवा में मिल गई
अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा में इमरोज़ के बारे में भी विस्तार से लिखा है. एक जगह वह लिखती हैं-
मुझ पर उसकी पहली मुलाक़ात का असर-मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था. मन में कुछ घिर आया, और तेज़ बुख़ार चढ़ गया. उस दिन-उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था-बहुत बुख़ार है? इन शब्दों के बाद उसके मुंह से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बड़ा हो गया हूं.
कभी हैरान हो जाती हूं. इमरोज़ ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत, जो उसकी अपनी ख़ुशी का मुख़ालिफ़ है. एक बार मैने हंसकर कहा था, ईमू! अगर मुझे साहिर मिल जाता, तो फिर तू न मिलता, और वह मुझे, मुझसे भी आगे, अपनाकर कहने लगा- मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ पढ़ते हुए ढूंढ लेता. सोचती हूं, क्या ख़ुदा इस जैसे इंसान से कहीं अलग होता है. अपनी एक कविता में वह अपने जज़्बात को कुछ इस तरह बयां करती हैं-
मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूं
कि वक़्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनूंगी
मैं तुझे फिर मिलूंगी
एक बार जब अमृता प्रीतम से पूछा गया कि ज़िंदगी में उन्हें किस चीज़ ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया तो जवाब में उन्होंने एक क़िस्सा सुनाते हुए कहा था, 1961 में जब मैं पहली बार रूस गई थी तब ताजिकिस्तान में एक मर्द और एक औरत से मिली, जो एक नदी के किनारे लकड़ी की एक कुटिया बनाकर रहते थे. औरत की नीली और मर्द कि काली आंखों में क्षण-क्षण जिए हुए इश्क़ का जलाल था. पता चला अब कि साठ-सत्तर बरस की उम्र इश्क़ का एक दस्तावेज़ है. मर्द की उठती जवानी थी, जब वह किसी काम से कश्मीर से यहां आया था और उस नीली आंखों वाली सुंदरी की आंखों में खोकर यहीं का होकर रहा गया था और फिर कश्मीर नहीं लौटा. वह दो देशों की नदियों की तरह मिले और उनका पानी एक हो गया. वे यहीं एक कुटिया बनाकर रहने लगे. अब यह कुटिया उनके इश्क़ की दरगाह है औरत माथे पर स्कार्फ़ बांधकर और गले में एक चोग़ा पहनकर जंगल के पेड़ों की देखभाल करने लगी और मर्द अपनी पट्टी का कोट पहनकर आज तक उसके काम में हाथ बंटाता है. वहां मैंने हरी कुटिया के पास बैठकर उनके हाथों उस पहाड़ी नदी का पानी पीया और एक मुराद मांगी थी कि मुझे उनके जैसी ज़िंदगी नसीब हो. यह ख़ुदा के फ़ज़ल से कहूंगी कि मुझे वह मुराद मिली है.
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)
#फ़िरदौस ख़ान