Read Time3 Minute, 9 Second
आख़िर
तुम मुझे क्या दे पाओगे
ज्यादा से ज्यादा
अपराध बोध से भरी हुई अस्वीकृति
या
आत्मग्लानि से तपता हुआ निष्ठुर विछोह
हालाँकि
इस यात्रा के पड़ावों पर
कई बार तुमने बताया था
इस आत्म-मुग्ध प्रेम का कोई भविष्य नहीं
क्योंकि
समाज में इसका कोई परिदृश्य नहीं
मैं
मानती रही कि
समय के साथ
और
प्रेम की प्रगाढ़ता
के बाद
तुम्हारा विचार बदल जाएगा
समाज का बना हुआ ताना-बाना
सब जल जाएगा
पर मैं गलत थी
समय के साथ
तुम्हारा प्यार
और भी काल-कवलित हो गया
तुम्हारा हृदय तक
मुझसे विचलित हो गया
तुम तो पुरुष थे
ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति
कभी कृष्ण, कभी अर्जुन की नियति
समाज की सब परिपाटी के तुम स्वामी
संस्कार,संस्कृति सब तुम्हारे अनुगामी
फिर भी
प्रेम पथ पर
तुम्हारे कदम न टिक पाए
विरक्ति-विभोह के
एक आँसू भी न दिख पाए
मैं
नारी थी
दिन-दुनिया,घर-वार
चहुँओर से
हारी थी
मुझको ज्ञात था
अंत में
त्याग
मुझे ही करना होगा
सीता की भाँति
अग्नि में
जलना होगा
पर
मैं
फिर भी तैयार हूँ
तमाम सवालों के लिए
मैं खुद से पहले
तुम्हारा ही बचाव करूँगी
और
जरूरत पड़ी तो
खुद का
अलाव भी करूँगी
मैं बदल दूँगी
सभी नियम और निर्देश
ज़माने के
और
हावी हो जाऊँगी
सामजिक समीकरणों पर
और इंगित कर दूँगी
अपना
”निश्छल प्रेम”
जो मैंने
जीकर भी किया
और मरने के बाद भी
करती जाऊँगी
#सलिल सरोज
परिचय
नई दिल्ली
शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011), जीजस एन्ड मेरीकॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)।
प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका”कोशिश” का संपादन एवं प्रकाशन, “मित्र-मधुर”पत्रिका में कविताओं का चुनाव।सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश।
Post Views:
411
Wed Sep 19 , 2018
जिम्मेदारीं की गठरी ले,मैं दोड़ आया हुं,, ऐ नोकरी मैं घर छोड़ आया हुं,, बचपन के वो खेल खिलोने, रेत से बनते घर के घरौंदे,, वो बारिश़ का पानी जो काग़ज की कश्ती डूबोदे,, उन सारी यादों से मैं मुहं मोड आया हुं,, ऐ नोकरी मैं घर छोड़ आया हुं,, […]