अनकिया सभी पूरा हो
—चौं रे चंपू! लौटि आयौ मॉरीसस ते?
—दिल्ली लौट आया पर सम्मेलन से नहीं लौट पाया हूं। वहां तीन-चार दिन इतना काम किया कि अब लौटकर एक ख़ालीपन सा लग रहा है। करने को कुछ काम चाहिए।
—एक काम कर, पूरी बात बता!
—उद्घाटन सत्र, अटल जी की स्मृति में दो मिनिट के मौन से प्रारंभ हुआ। दो हज़ार से अधिक प्रतिभागियों के साथ दोनों देशों के शीर्षस्थ नेताओं की उपस्थिति श्रद्धावनत थी और हिंदी को आश्वस्तकर रही थी। ‘डोडो और मोर’ की लघु एनीमेशन फ़िल्म को ख़ूब सराहना मिली। और फिर अटल जी के प्रति श्रद्धांजलि का एक लंबा सत्र हुआ। ‘हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृति’ से जुड़े चार समानांतर सत्र हुए। चार सत्र दूसरे दिन हुए। ‘हिंदी प्रौद्योगिकी का भविष्य’ विषय पर विचार–गोष्ठी हुई। प्रतिभागी विभिन्न सभागारों में जमे रहे। भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों को तिलांजलि दे दीगई, लेकिन रात में देश–विदेश के कवियों ने अटल जी को काव्यांजलि दी। तीसरे दिन समापन समारोह हुआ। देशी–विदेशी विद्वान सम्मानित हुए। सत्रों की अनुशंसाएं प्रस्तुत की गईं। भविष्य के लिए‘निकष’ को भारत का प्रवेश द्वार बताया गया।
—कछू बात तौ हमनैं अखबारन में पढ़ लईं। तू कोई खास बात बता!
–एक ख़ास बात ये कि जिस होटल में हमें टिकाया गया, उसी में दो दशक पहले अटल जी ठहरे थे। इस बार यहां सुषमा जी ठहरी थीं। उनके निर्देशन में पूरा सम्मेलन उसी कक्ष के पास वाले कक्षसे संचालित हो रहा था। वहां की खिड़कियों से बंदरगाह के दूसरी ओर पुराना आप्रवासी भवन दिखता है। बंदरगाह पहले एक प्राकृतिक खाड़ी था। यहीं जहाज आए। जहाजी उतरे। यह प्राकृतिक खाड़ी न होती तो इस छोटे से द्वीप पर बड़े जहाज न आ पाते और इस द्वीप का उपयोग एक सभ्य समाज को बसाने के लिए न हो पाता। मॉरीशसवासियों के प्रतापी भारतवंशी पुरखों के उद्यम से यहांगन्ने की खेती हुई। गन्ने ने सोना बरसा दिया। समृद्धि आने लगी और सन साठ में आज़ादी मिलने के बाद यह देश भारतवंशियों के हाथ में आ गया। विदेशी रहे, पर वर्चस्व भारतवंशियों का औरउनकी भाषा का हुआ। उन्होंने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को जीवित रखा। चचा, अब चुनौती है हिंदी–भोजपुरी को बचाए रखने की।
—चौं? अब लोग हिंदी नायं बोलैं का?
—पिछले दस–पंद्रह साल में मॉरीशस बदल गया है। मैंने दस साल बाद यह जो मॉरीशस देखा, इसकी नई पीढ़ी में एक अलग तरह का स्वाभिमान है। अभी तक हम इसे कहते आ रहे हैं, गिरमिटिया देश। गिरमिटिया देश वे देश हैं, जिनमें भारत से गए मजदूरों के श्रम की बुनियाद पर सम्पन्न देशों ने अपने मुनाफ़े के महल बना लिए। मॉरीशस के अलावा त्रिनिडाड–टोबैगो, सूरीनाम, गुयाना, फीजी और नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) आदि देशों में जो मज़दूर आते थे, उन्हें गिरमिटिया मज़दूर कहा जाता रहा है। यह मजदूर एग्रीमेंट के तहत भेजे जाते थे। एग्रीमेंट का अपभ्रंश गिरमिटिया हो गया। मैंने मॉरीशस के एक नवयुवक से पूछा कि गिरमिटिया सम्बोधन आपको ठीक लगता है? युवक ने कहा, न तो ठीक लगता है, न बुरा लगता है। हमारे पुरखे भी स्वयं को गिरमिटिया कहते आ रहे हैं तो हमने भी एक स्तर पर स्वीकार कर लिया। उन्होंने संघर्ष किया, कुर्बानियां दीं, हम आभारी हैं उनके, लेकिन हम तो आज़ाद मॉरीशस में पैदा हुए। फिर हमें क्यों कहा जाए गिरमिटिया, क्यों कहा जाए प्रवासी! हम मॉरीशसवासी हैं, मॉरीशियन हैं। हमें एक स्वायत्त देश का नागरिक मानकर मॉरीशियन कहा जाना चाहिए। बात सही है चचा! यह स्वाभिमान और अपने देश के प्रति प्यार कामामला है। लोकतांत्रिक ढांचे पर खड़ा कोई भी देश आकार या क्षमता के कारण छोटा या बड़ा नहीं होता। वह एक सम्प्रभु देश होता है। यह तो मॉरीशस का बड़प्पन है कि वे स्वयं को भाषा औरसंस्कृति के साम्य के कारण छोटा भारत कहते हैं। बहरहाल, कहा जा सकता है कि सम्मेलन सफल रहा। उसके परिणाम अच्छे रहे। यह पूरा सम्मेलन अटल जी को समर्पित था। उनके प्रतिश्रद्धावनत था और भविष्य के लिए कार्यावनत। श्रेष्ठ नागरिकों से बसा हुआ एक सभ्य और सुंदर देश है मॉरीशस। धार्मिक, कार्मिक और चार्मिक देश है।
—घूमा-फिरी करी कै नायं?
—घूमा–फिरी की बात तो घूमने वाले लोग जानें कि कितने घूमे, कितने फिरे। पर हम तो रहे घिरे। निरंतर किसी न किसी काम में। पहले दिन उद्घाटन सत्र के बाद श्रद्धांजलि सभा हुई। मुझे सुषमा जी ने संचालन सौंप दिया। तीन हज़ार की उपस्थिति में कौन नहीं होगा जो बोलना न चाहेगा और वह भी सारे के सारे हिंदी के बोलने वाले लोग बैठे हों तब। संयम के साथ ढाई घंटे श्रद्धांजलि सभा चली और विदेशी विद्वानों को अधिक समय दिया गया। उसके तत्काल बाद अपना सत्र था, प्रौद्योगिकी का। वह तीन घंटे चला। उसके अगले दिन निकष और इमली पर विचार गोष्ठी होनी थी, उसकी तैयारियों में लगे। थोड़ी अव्यवस्था तो जरूर थी, घोषणा किसी स्थान की हुई। सत्र कहीं हुए। इसमें वक्ता और श्रोता सभी भटकते रहे। बहरहाल, पहला सत्र रिजीजू जी की अध्यक्षता में हुआ था। उन्होंने बड़ी रुचि से निकष और कंठस्थ को देखा, सुना। चचा अब ज़रूरी ये है कि योजनाओं को मंत्रीगण समझें और उनको व्यवहार में लाया जाना देखें। इस मामले में यह सम्मेलन मुझे उपलब्धि नजर आता है, क्योंकि संगोष्ठी में विदेश राज्य मंत्री एम. जे. अकबर बैठे थे। उन्होंने प्रौद्योगिकी से जुड़े हुए पच्चीस विद्वानों को सुना और उसके प्रति अपनी गंभीरता दिखाई।
—मंत्री का कल्लिंगे?
—जब तक सरकार के मंत्रीगण नहीं समझेंगे कि प्रौद्योगिकी हिंदी के विकास के लिए सर्वाधिक ज़रूरी है, तब तक योजनाएं फाइलों में रहेंगी। आधे–अधूरे प्रयत्नों के साथ उत्पाद बनाए जाएंगे जो जनता तक नहीं जाएंगे। इस बार ‘निकष’ का प्रारूप तीन हज़ार के सभागार में दिखाया गया कि वह हिंदी सीखने, परीक्षा देने और प्रमाण–पत्र प्राप्त करने वाला वैश्विक द्वार होगा। जिसमें उनकी सुनने, बोलने, लिखने और पढ़ने की ऑनलाइन कक्षाएं दी जाएंगी, परीक्षाएं ली जाएंगी, प्रमाण–पत्र दिए जाएंगे। इन सबके बाद काव्यांजलि हुई। रात के बारह बज गए। लौटते ही अगले दिन के लिए अपने सत्र की अनुशंसाएं तैयार करनी थीं। विचार–गोष्ठी में भी अनेक अनुशंसाएं प्राप्त हुईं। पता नहीं ऊर्जा कहां से आती है, जो आपसे काम कराती है। काम डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा ने भी रात भरकिया। वर्धा विश्वविद्यालय की ओर से भी कागज़ आए। समापन समारोह के प्रारंभ में आठ सत्रों का लेखा–जोखा बताने के लिए आठ को ज़िम्मेदारी दी गई थी। प्रत्येक के लिए समय दिया गया तीनमिनिट का। अब भला तीन–तीन घंटों के सत्रों का ब्यौरा तीन–तीन मिनिट में कैसे दिया जा सकता था। मेरे सत्र के काग़ज़ों का पुलिंदा मेरे हाथ में था। पहले वक्ता प्रो. गिरीश्वर मिश्र का एक मिनिटतो मंचस्थ लोगों को संबोधित करने में ही निकल गया। अपने सत्र की रपट वे बहुत अच्छी तरह बता रहे थे। तीन मिनिट पूरे होते ही संचालिका महोदया ने डायस पर पर्ची रख दी। अच्छा हुआउन्होंने वह पर्ची देखी ही नहीं, या देखकर अनदेखी कर दी। डेढ़–दो मिनिट और लेकर अपनी बात गरिमापूर्वक पूरी कर दी। अब मेरी बारी थी। डायस पर जाते ही मेरे हाथ से
अच्छा हुआ उन्होंने वहपर्ची दे
मेरे कुर्सी पर लौटने तक शायद
—अपनी कबता हमें तौ सुनाय दै!
—सुनिए!
अनुपालन को प्यासी बैठीं
जाने कितनी अनुशंसाएं,
आड़े आती हैं शंकाएं
पीड़ित करतीं आशंकाएं।
है कौन पूर्णता का दावा
जो दावे से कर पाता है,
कितना भी कर डाले लेकिन
अनकिया बहुत रह जाता है।
चिन्हित करने के बावजूद
मंज़िल आगे बढ़ जाती है,
गति का लेखा पीछे आकर
गुपचुप-गुपचुप पढ़ जाती है।
मंज़िल हो जाय परास्त, अगर
गतिमान प्रगति का चक्का हो,
अनकिया सभी पूरा हो, यदि
संकल्प हमारा पक्का हो।
तीन बजे भोजन हुआ। पांच बजे बस आ गई। नौ बजे की फ्लाइट से वापसी हो गई। आपसे मिलना था, सो आ गया, वरना अभी परवर्ती काम बाकी थे। दूसरे
#डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’