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साहित्य समाज का दर्पण है यह तो हमें अभी कहना नहीं पड़ेगा । साहित्य जाति धर्म का वाहक है । साहित्य के बिना हम किसी जाति संस्कृति अथवा धर्म को समझ नहीं पायेंगे ।
महान हिंदी साहित्यकार माननीय मुंशी प्रेमचंद जी के कहना है “जिस साहित्य में हमारी रुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हम में गति और शांति पैदा न हो, हमारा सौन्दर्य प्रेम न जागृ्त हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है। वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।” अर्थात साहित्य से हमें तृप्ति मिलना चाहिए, साहित्य में सौन्दर्य और प्रेम जागरूक होना चाहिए । साहित्य में कठिनाईयों पर विजय पाना है ।
मेरी विचार में मुंशी प्रेमचंद जी के विचार से सहमत हूँ । साहित्य ही है जिससे हम मरते हुए जाति तथा धर्म को पुनर्जीवित कर सकते है । यह तब संभव होगा जब साहित्य में रस सौंदर्य के साथ साथ सत्यता हो ।
महामानव महात्मा गांधी कहते है “साहित्य वह है जिसे चरस खींचता हुआ किसान भी समझ सके और खूब पढ़ा-लिखा भी समझ सके।” अर्थात साहित्य हमेशा सरल और चरस खींचता हुआ होना चाहिए, ताकि साधारण लोग भी समझ सके और पढ़े-लिखे लोग भी समझ सके ।
इसलिए हम कह सकते है कि साहित्य एक समाज एक जाति एक धर्म का दर्पण है । एक साहित्यिक अक्सर अपनी ही संस्कृति धर्म तथा क्षेत्र में प्रतिफलित विषय को ही ध्यान में रखकर सृजन करते है । जैसे दिन व दिन समाज व्यवस्था ,रहने का तरीका ,लोगो में आपसी भाषा धर्म के मिल मिलाप होने लगे है ठीक उसी प्रकार साहित्य में भी अलग अलग साहित्य के मिश्रण होने लगे हैं । ठीक उसी प्रकार साहित्य सृजन के व्यवहारिक भाषाओ में भी मानक शब्द व्यवहार होने लगे हैं, ताकि लोगो को आसानी से समझमें आए। अगर हमें हमारे साहित्य को जीवित रखना है और सभ्यता की दौड़ में अन्य जातियों की बराबरी करना है तो हमें श्रमपूर्वक बड़े उत्साह से सत्साहित्य का उत्पादन और प्राचीन साहित्य की रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि इतिहास पर ही वर्तमान जन्मा है । जब अंतरजगत का सत्य बहिर्जगत के सत्य के संपर्क में आकर संवेदना या सहानुभूति उत्पन्न करता है, तभी साहित्य की सृष्टि होती है। साहित्य साहित्यकार के हृदय की प्रतिनिधि है । सच्चे साहित्यकार तो साहित्य का सृजन अपनी एकान्त चिंतन से उत्पन्न करते हैं ।
लेकिन अभी ऐसा समय आ गया है कि दिन व दिन साहित्य विलुप्त होने लगा है । साहित्य अब विकृत रूप धारण करने लगे हैं । आधुनिकता में पदार्पण करने की धुन में एक एक भारतीय भाषा के साहित्य मृत्यु के दरवाजे पर खड़े होने लगे हैं । हमें ध्यान रखना हैं, अगर साहित्य तथा भाषा ही मर गए तो उस जाति का अस्तित्व ही नहीं रहेगा । आजकल के युवा पीढ़ी तो बहुत ही होश और जोश से लिख रहे है, लेकिन वे ध्यान रखें कि अपनी भाषा व संस्कृति अपभ्रंश ना हो और हमेशा सकारात्मक सोच के साथ ही सृजन करें, बस आप सभी इसमें साथ दें, यही आप सबसे विनती है ।
#वाणी बरठाकुर ‘विभा’
परिचय:श्रीमती वाणी बरठाकुर का साहित्यिक उपनाम-विभा है। आपका जन्म-११ फरवरी और जन्म स्थान-तेजपुर(असम) है। वर्तमान में शहर तेजपुर(शोणितपुर,असम) में ही रहती हैं। असम राज्य की श्रीमती बरठाकुर की शिक्षा-स्नातकोत्तर अध्ययनरत (हिन्दी),प्रवीण (हिंदी) और रत्न (चित्रकला)है। आपका कार्यक्षेत्र-तेजपुर ही है। लेखन विधा-लेख, लघुकथा,बाल कहानी,साक्षात्कार, एकांकी आदि हैं। काव्य में अतुकांत- तुकांत,वर्ण पिरामिड, हाइकु, सायली और छंद में कुछ प्रयास करती हैं। प्रकाशन में आपके खाते में काव्य साझा संग्रह-वृन्दा ,आतुर शब्द,पूर्वोत्तर के काव्य यात्रा और कुञ्ज निनाद हैं। आपकी रचनाएँ कई पत्र-पत्रिका में सक्रियता से आती रहती हैं। एक पुस्तक-मनर जयेइ जय’ भी आ चुकी है। आपको सम्मान-सारस्वत सम्मान(कलकत्ता),सृजन सम्मान ( तेजपुर), महाराज डाॅ.कृष्ण जैन स्मृति सम्मान (शिलांग)सहित सरस्वती सम्मान (दिल्ली )आदि हासिल है। आपके लेखन का उद्देश्य-एक भाषा के लोग दूसरे भाषा तथा संस्कृति को जानें,पहचान बढ़े और इसी से भारतवर्ष के लोगों के बीच एकता बनाए रखना है।
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