संदीप सृजन ……….
“नीरज” हिंदी गीतों का वो राजकुमार जिसे सदियों तक भुलाया नहीं जा सकेगा 19 जुलाई को इस दुनिया को अलविदा कह गया । नीरज हिंदी कविता का वह महान कलमकार जो अपने रोम-रोम में कविता लेकर जीया, नीरज जिसके गीत केवल गीत नहीं है जीवन का दर्शन बनकर जनमानस में एक नई चेतना जागृत करते है । ऐसे अनेक चित्र नीरज का नाम मस्तिष्क में आते ही बनने शुरु हो जाते है । नीरज जैसे साधक सदियों में होते है जिन्हें गीत, लय,भाव और शब्द स्वयं चुनते है तभी नीरज लिखते है ‘मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य’ किंतु ऐसा सौभाग्य किसी-किसी को ही हासिल होता है।
गीत और कविता से प्यार करने वाले हर शख्स के दिलो-दिमाग में गोपाल दास नीरज की एक ऐसी अनूठी छवि बनी है जिसे भविष्य की कोई भी मिटा नहीं सकता। नीरज का जन्म 4 जनवरी 1925 को यूपी के इटावा जिले के ग्राम पुरावली में हुआ था।जीवन का प्रारंभ ही संघर्ष से हुआ, अलीगढ़ को अपनी कर्मस्थली बनाया,बहुत मामूली-सी नौकरियों से लेकर फ़िल्मी ग्लैमर तक, मंच पर काव्यपाठ के शिखरों तक, गौरवपूर्ण साहित्यिक प्रतिष्ठा तक, भाषा-संस्थान के राज्यमंत्री दर्जे तक उनकी उपलब्धियाँ उन्हें अपने संघर्ष-पथ पर पढ़े मानवीयता और प्रेम के पाठ से डिगा न सकीं । बहुत ही कम लोगों को यह मालूम है कि 60 और 70 दशक में अपने बॉलीवुड गीतों के जरिये लोगों के दिलों में जगह बना चुके गोपाल दास ‘नीरज’ ने चुनाव भी लड़ा था। साल 1967 के आम चुनाव में ‘नीरज’ कानपुर लोकसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरे थे। नीरज का दृष्टिकोण स्वहित से ज्यादा जनहित रहा तभी वे एक दोहे में कहते थे-
हम तो बस एक पेड़ हैं, खड़े प्रेम के गाँव।
खुद तो जलते धूप में, औरों को दें छाँव।।
नीरज ने कविता के वस्तु-रूप को कभी नियंत्रित नहीं किया। मंच की कविताएँ हों या फ़िल्मी गीत, नीरज का कवि कहीं भी समझौता नहीं करता था । फिल्मों के लिए लिखे गए उनके गीत अपनी अलग पहचान रखते हैं। फ़िल्म-संगीत का कोई भी शौकीन गीत की लय और शब्द-चयन के आधार पर उनके गीतों को फ़ौरन पहचान सकता है। वस्तु के अनुरूप लय के लिए शब्द-संगति जैसे उनको सिद्ध थी। फिल्मी गीतों को भी वे उसी लय में मंचों से गाया करते थे-
“स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।“
ये वो गीत जो जीवन का सार बताता है, जीवन की गहराई से रुबरु करवाता है नीरज ही कह सकते है उन्होने जीवन को सिर्फ जीया नहीं लिखा भी है अपनी रचनाओं में इसीलिए वे लिख गए-
“छिप छिप अश्रु बहाने वालों,मोती व्यर्थ बहाने वालों, कुछ सपनों के मर जाने से,जीवन नहीं मरा करता है ।“
सामान्य जन के लिए उनके मन में दर्द था, इसी दर्द को वे ‘प्रेम’ कहते थे. प्रेम ही उनकी कविता का मूल भाव भी है, और लक्ष्य भी था। उनके कविता-संग्रह ‘नीरज : कारवाँ गीतों का’ की भूमिका से उन्हीं के शब्दों में- “मेरी मान्यता है कि साहित्य के लिए मनुष्य से बड़ा और कोई दूसरा सत्य संसार में नहीं है और उसे पा लेने में ही उसकी सार्थकता है… अपनी कविता द्वारा मनुष्य बनकर मनुष्य तक पहुँचना चाहता हूँ… रास्ते पर कहीं मेरी कविता भटक न जाए, इसलिए उसके हाथ में मैंने प्रेम का दीपक दे दिया है… वह (प्रेम) एक ऐसी हृदय-साधना है जो निरंतर हमारी विकृतियों का शमन करती हुई हमें मनुष्यता के निकट ले जाती है. जीवन की मूल विकृति मैं अहं को मानता हूँ… मेरी परिभाषा में इसी अहं के समर्पण का नाम प्रेम है और इसी अहं के विसर्जन का नाम साहित्य है.”
“हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे। जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे।“
दार्शनिक चिंतन और आध्यात्मिक रुचि के नीरज का मन मानव-दर्दों को अनेकविध रूप में महसूस करता था और उनके मनन का यही विषय था. ‘सत्य’ किसी एक के पास नहीं है, वह मानव-जाति की थाती है और मनुष्य-मनुष्य के हृदय में बिखरा हुआ है। शायद इसीलिए नीरज ने अपनी गजल के मतले में कहा-
“अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए। जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।“
दर्शन तो उनकी लेखनी का अहम हिस्सा रहा है जब वे लिखते है-
“कहता है जोकर सारा ज़माना,आधी हक़ीकत आधा फ़साना,चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो, दुनिया नयी है, चेहरा पुराना”
नीरज को यूं तो शब्दों में बांध पाना मुश्किल है ,और जो नीरज ने कहा है ,नीरज ने लिखा है और नीरज ने गाया है उस पर कुछ लिखना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असंभव है । नीरज जब महाप्रयाण कर गये तब मैं अपने शब्दों में विनम्र श्रद्धाजलि अर्पित करते हुए यही कहूँगा-
कालखंड का युग पुरुष, गया काल को जीत।
छोड़ गया भू लोक पर, दोहें, गजलें, गीत।।