यूँ ही नहीं बन जाता कोई उपन्यास सम्राट !

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(व्यक्तित्व/मुंशी प्रेमचंद )

साहित्य की सघन वादियों में कदमों के निशान ऐसे ही नहीं छूटते , बहुत श्रम करना पड़ता है । कालजयी साहित्यकार वही होता है, जिसके कदमों के निशान देख जमाना रास्ता तय करे !

31 जुलाई 1880 को वाराणसी के पास लमही में अजायब राय और आनंद देवी के घर एक ऐसे ही साहित्यिक सूर्य का जन्म हुआ जिसकी विविध साहित्य रूपी रश्मियों से हिंदी साहित्य देदीप्यमान हो उठा ।

8 वर्ष की उम्र में जिस बालक ने माँ को खोया; 16 की उम्र में उसी के सिर से पिता का साया भी उठ गया । दुःख, अभाव और संत्रास की त्रिविध पीड़ा ने उसी धनपत राय या नवाब राय को आगे चलकर उपन्यास सम्राट, यथार्थवाद के जनक और न जाने किन-किन विशेषणों से नवाज़ दिया ।
शायद इसी भाव के लिए उन्होंने लिखा था- “तुम जीते ,हम हारे। पर फिर लड़ेंगे ।”

सरस्वती और जमाना पत्रिका से कार्य की शुरुआत करने वाले सरस्वती के इस पुत्र ने जमाना ही बदल दिया, सोजे वतन से राष्ट्र का विलाप सुनाने वाले ने सच ही पूरे राष्ट्र की आत्मा को अपने लेखनी में उतार दिया। किसानी जीवन का महा-आख्यानात्मक उपन्यास गोदान हो या फिर हंस के संवादकीय, मुंशी प्रेमचंद ने 8 अक्टूबर 1936 में देहत्याग से पहले ही इतनी लंबी रेखा खींच दी कि इसके शिराओं को ढूंढना आम लोगों के बस की बात नहीं । साहित्य के जानकार यह मानते हैं कि यह रेखा आज और लंबी ही होती जा रही है।

15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 7 बाल उपन्यास और हजारों आलेख एवं संपादकीय ने साहित्य के जिस युगपुरुष को गढ़ा वे प्रेमचंद थे , वही प्रेमचंद जिन्होंने कहा था कि साहित्यकार देशप्रेम और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं है यह तो उसके आगे मशाल लेकर चलने वाली सच्चाई है ।

सच ही प्रेमचंद्र का साहित्य-भंडार विराट और विपुल है । स्त्री-विमर्श हो या दलित चेतना , प्रेमचंद ने सबके लिए एक मजबूत आधारशिला रखी । उनका फलक अति व्यापक है चाहे वह कायाकल्प हो, मंगलसूत्र हो, निर्मला हो ; या फिर कफन , बूढ़ी काकी और पूस की रात ।

फ़िल्मी दुनियाँ और मायानगरी की चकाचौंध में आँखें चौंधियाती नई पीढ़ी को ध्यान रखना चाहिए कि प्रेमचंद बिना तनख्वाह लिए महज 2 महीने में वहाँ से इसलिए लौट आए कि वहाँ की चमक-दमक और आबो-हवा उन्हें लेखनी के अनुरूप नहीं लगी थी । कायाकल्प में शायद अपने बारे में ही लिखा था- “सोने को मुलम्मे की जरूरत नहीं होती ।”
यही लेखकीय पक्षधरता, यही जनसरोकार और यही साधक-स्वभाव प्रेमचंद के महनीय साहित्यिक अवदान का उत्स है ; और इसी सुमेल ने उन्हें उपन्यास सम्राट और वह सब बनाया जो अन्य महान साहित्यकारों को भी मिल न सका ।

मातृभाषा परिवार की तरफ से इन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !
#कमलेश कमल
(साहित्य संपादक)

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